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कश्मीर दौरे के लिए दक्षिणपंथी सांसदों को बुलावा क्यूँ ?

कश्मीर से अनुच्छेद 370 के हटने के बाद भारत सरकार ने पहली बार किसी अंतराष्ट्रीय समूह को दौरे की इजाज़त दी है. यह तो हुई पहली ख़ास बात. दूसरी ख़ास बात ये है कि इन 27 में से 22 सांसद दक्षिणपंथी है. जिनका ज़िक्र करना मुख़्यधारा का मीडिया भूल गया है. ये 22 सांसद अपने-अपने मुल्क़ के दक्षिणपंथी नेता हैं. इनमें से 6 सांसद फ्रांस की दक्षिणपंथी पार्टी “नेशनल रैली” के हैं, 5 सांसद पोलैंड की “लॉ एंड जस्टिस पार्टी” (पोलिश भाषा में Prawo i Sprawiedliwość) से, 4 यूके की “ब्रेक्जिट पार्टी” से, 2 इटली की “लिगा पार्टी” से, 2 जर्मनी की “अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी पार्टी” से, अन्य तीन क्रमशः बेल्जियम की “फ्लाम्स बेलांग” पार्टी से, चेक रिपब्लिक की “क्रिस्चियन एंड डेमोक्रेटिक यूनियन- चेकोस्लाविक पीपल्स पार्टी” से व स्पेन की “वॉक्स” पार्टी के हैं.

गौरतलब है कि यूरोपियन संसद में गत 17 सितम्बर को भारत सरकार के कश्मीर पर लिए गए फ़ैसले पर चर्चा हुई थी. जिसमे कश्मीर में लगाई गयी पाबंदियों की आलोचना भी हुई थी. उसी चर्चा में 2 सांसदों ने भारत के इस फ़ैसले का समर्थन किया था. उनमें से एक पोलैंड के और दूसरे इटली है. रोचक बात ये है कि वे दोनो सांसद फिलहाल कश्मीर में मौजूद है. बताते चलें कि यह कोई आधिकारिक दौरा नहीं है. इस बात की पुष्टि खुद ईयू ऑफिस ने की है. इन्हें EU ने नहीं भेजा है. अब सवाल यह है कि सरकार ने अपने ही देश के सांसदों पर वहाँ जाने के लिए पाबंदी क्यूँ लगाई? क्यूँ विदेशी पत्रकारों और डिप्लोमेट्स को भारत आने से रोका गया? क्या सरकार दुनिया के सामने कश्मीर की हक़ीक़त पर पर्दा डालना चाहती है? और अगर नहीं भी डालना चाहती है तो ब्रिटेन की लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के क्रिस डेविस जो ईयू के सांसद है, को निमंत्रण देने के बाद क्यूँ भारत आने से मना कर दिया गया. डेविस की शर्त थी कि वे कश्मीर में बग़ैर किसी भारतीय अधिकारी की मौजूदगी के दौरा करना चाहते हैं. जिसको भारत सरकार ने सुरक्षा का हवाला देकर ठुकरा दिया है.

पत्रकारों के आने पर रोक लगाई जा सकती है मगर पत्रकारिता पर नहीं. इस बात को आप न्यू यॉर्क टाइम्स में छपी इस खबर से बेहतर तरीके से समझ सकते हैं-

 
बता दें कि ऊपर जिन पार्टियों के नाम दिए गए है वे इस्लामोफ़ोबिक बयान देती आई है. इटली की लिगा पार्टी ने देश में अवैध प्रवास के विरुद्ध कड़ा रुख अपनाया है. उसमे भी खासकर मुस्लिम देशों से आने वाले लोगों पर. क्या भाजपा का भी इसी तरह का रुख आपने नहीं देखा. जब अमित शाह कहते हैं कि पड़ोसी देशों से केवल नॉन-मुस्लिमों को ही शरण दी जाएगी. तो क्या भाजपा केवल उन्हीं हलकों की आवाज़ सुनना चाहती है जो उसी की भाषा बोलते हैं?
 

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