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शाहीन बाग 500 महिलाओं की ज़िद न की 500 का लालच

New Delhi से विनीत कुमार का लेख :- शाहीन बाग की औरतें 500 रूपये की दीहाड़ी के लिए धरने पर बैठी हैं। इनकी शिफ्ट लगती है। इस तरह के आरोप पर न तो मुझे किसी तरह की हैरानी हो रही है और न ही इसमें कुछ नया लग रहा है। मैं ऐसे दर्जनों बेशर्म मीडियाकर्मियों को जानता हूं जो अपनी आंखों के सामने अपने कलीग को दिन-रात बैल की तरह जुतकर काम करते देखते हैं और उनकी जिंदगी में कुछ हासिल होता है तो सपाट ढंग से कह देते हैं- इसे तो सब जुगाड़ से मिला है। अकादमिक दुनिया इससे अलग नहीं है।
कॉलेज में हमलोग टॉप करते तो सेकेण्ड डिविजनर व्यंग्य से कहते- ये लोग तो रटकर नंबर लाता है, समझ थोड़े ही न है. ये अलग बात है कि ऐसे लोग रट्टा भी नहीं मार पाते। लोगों को दूसरों की मेहनत और संघर्ष नज़र नहीं आता लेकिन उपलब्धि चुभने लगती है। हम ऐसे ही लोगों से घिरे हैं। आरोप लगानेवाले कभी नहीं सोचते कि वो खुद तब क्या कर रहे थे ?
ये मसला शाहीनबाग भर का नहीं है। ये मसला उस समाज का है जहां मेहनत, संघर्ष और ईमान लोगों की आंखों में चुभने लगता है। हम मेहनतकश को बर्दाश्त कर ही नहीं पाते। हम बिना किसी को कमतर करके असहमत होना जानते ही नहीं। क्या शाहीनबाग की औरतों के आंदोलन से जो असहमत हैं, वो बिना आरोप लगाए अपनी बात नहीं कर सकते है? इसकी गुंजाईश नहीं है?
जिस व्यक्ति के भीतर दूसरों की मेहनत और संघर्ष समझने की संवेदना नहीं होती उसके गिरने का कोई स्तर नहीं होता। वो इसके लिए अपना वजूद खत्म करके भी दूसरों पर शक करेगा।
वैसे ये आरोप सही है तो सोचिए ये औरतें कितनी बेवकूफ हैं जो इस ठंड में हड्डियां गला रही हैं। 500 रूपये तो जेएनयू-जामिया के खिलाफ दो-चार एफबी स्टेटस लिख देने से आ जाएंगे। लेकिन ऐसा सचमुच कर रही हैं तो इस देश के नागरिक बेहद संवेदनशील हैं, वो समझ जाएंगे।

 

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