खरगोन : अश्वगंधा की खेती बनी शोध का विषय, किसानों का मेडिशनल खेती की ओर बढ़ा रूझान
खरगोन : अश्वगंधा की खेती बनी शोध का विषय,
किसानों का मेडिशनल खेती की ओर बढ़ा रूझान
खरगोन से लोकेश कोचले की रिपोर्ट : – मानव शरीर में होने वाले लगभग 80 प्रतिशत बिमारियों में रामबाण की तरह काम आने वाली अश्वगंधा की खेती अब खरगोन में भी होने लगी है। हमारे जिले के कुछ युवा किसानों की सोच और मेहनत के अच्छे परिणाम सामने आ रहे है। गत अगस्त माह में बामखल, देवला और नागरला के कुछ युवा किसानों ने जैविक खेती के वाट्सअप ग्रुप पर पारंपरिक खेती से होने वाले नुकसान और उभारने के तरीके पर संवाद हुआ। इस संवाद से निकले सार को अमल में लाने के लिए ग्रुप के कुछ युवा किसान अश्वगंधा के बीज और फसल का अवलोकन करने 400 किमी लंबी यात्रा पर नीमच चल दिए। नीमच के भातखेड़ी में किसान मित्र श्याम विश्वकर्मा से खरगोन के किसानों ने खेती की प्राथमिक तकनीक जानी। इसके बाद खरगोन के युवा किसानों ने बीज खरीदे। किसी ने 40 किलों तो किसी ने 60 किलों अश्वगंधा के बीजों को सितंबर माह में खरगोन की उपजाऊ भूमि पर बुवाई कर दी। युवा किसानों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा जब इंदौर से एक शोधार्थी किसानों के खेतों में फसल के अवलोकन के लिए पहुंची।
एक-एक एकड़ में शुरू की खेती : – नागरला के 32 वर्षीय युवा किसान कालुराम यादव ने एक एकड़ के खेत में 40 किलों बीज के साथ अश्वगंधा की खेती शुरू कर की। कालुराम बताते है कि वर्षों से कपास गेहूं मिर्च की पारंपरिक खेती कर रहे है। कभी मुनाफा तो कभी नुकसान होने लगा। ऐसे में अश्वगंधा की खेती पर चर्चा हुई, जिसमें खाद और किसी अतिरिक्त लागत की आवश्यकता नहीं होती। आज उनकी फसल में भरपूर फल आए है। इनके अलावा बामखल के 30 वर्षीय विजय यादव ने भी अश्वगंधा की खेती के लिए प्रयोग शुरू किया। आज खरगोन जिले में इनके अतिरिक्त बामखल के अशोक सिताराम यादव, जितेंद्र सालकराम यादव, गणेश रमेश यादव, विजय यादव और देवला के अशोक यादव भी अश्वगंधा की खेती कर रहें है। कालूराम बताते है कि अश्वगंधा की खेती में किसी प्रकार का खाद और कीटनाशक की आवश्यकता नहीं है। इस फसल का हर हिस्सा बिक जाता है। अश्वगंधा आंखों की ज्योति बढ़ाने, गले का रोग, छाती, टीबी, गठिया, त्वचा, पेट, कब्ज और पुरूष-महिलाओं की शारीरिक कमजोरी को दूर करने में फायदेमंद है।
मालवा के बनिस्बत निमाड़ उपयुक्त है अश्वगंधा के लिए : –
देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ फार्मेसी विभाग से डॉ. जीपी चौधरी के निर्देशन में “अश्वगंधा में आनुवांशिक विविधता के आंकलन के लिए डीएनए अंकक का विकास“ (मार्कर) की शोधार्थी राखी खाबिया ने बताया कि नागरला और देवला में अश्वगंधा की फसले मालवा की फसलों की तुलना में बहुत बेहतर है। यहां अश्वगंधा पौधे की ऊंचाई फल या बीज और पत्तियां अच्छी उपज के संकेत देती है। 4 जनवरी को अश्वगंधा की खेती कर रहे किसानों से मिली। उन्होंने नागरला के कालूराम और देवला के अशोक के खेतों में अश्वगंधा की सराहना करते हुए कहा कि इसकी खेती बहुत कम किसान कर रहे हैं। जबकि इसमें ज्यादा खर्च भी नहीं लगता है। खरगोन के छोटे-छोटे किसानों ने जो नवाचार किया वो वाकई सराहनीय है।