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हिंदी के अप्रतिम कवि और ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार की आज पुण्यतिथि , पढ़िए प्रमुख रचनाएं

हिंदी के प्रमुख ग़ज़लकार एवं कवि दुष्यंत कुमार की आज पुण्यतिथि है। दुष्यंत कुमार भारतीय साहित्य के एक मूर्धन्य कवि माने जाते हैं।  मध्यप्रदेश के संस्कृति विभाग के अंतर्गत भाषा विभाग में रहे। आपातकाल के समय उनका कविमन क्षुब्ध और आक्रोशित हो उठा जिसकी अभिव्यक्ति कुछ कालजयी ग़ज़लों के रूप में हुई, जो उनके ग़ज़ल संग्रह 'साये में धूप' का हिस्सा बनीं। सरकारी सेवा में रहते हुए सरकार विरोधी काव्य रचना के कारण उन्हें सरकार का कोपभाजन भी बनना पड़ा। 30 दिसंबर 1975 को हिंदी साहित्य का यह कालजयी कवि और ग़ज़लकार असमय संसार को छोड़ कर चला गया। 1975 में दुष्यंत की प्रसिद्ध ग़ज़लों में से एक संग्रह “साये में धूप” प्रकाशित हुआ। इन ग़ज़लों को इतनी लोकप्रियता हासिल हुई कि उसके कई शेर कहावतों और मुहावरों के तौर पर आज भी प्रचलित हैं। इसके साथ ही साथ दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है। यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है और यही गुस्सापन व व्यवस्था के खिलाफ हल्लाबोल उनकी कविताओं व रचनाओं में साफ़ दिखता हैं।

रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया , इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो

कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता , एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो.

चांदनी छत पे चल रही होगी , अब अकेली टहल रही होगी

फिर मेरा ज़िक्र आ गया होगा , बर्फ़-सी वो पिघल रही होगी

कल का सपना बहुत सुहाना था , ये उदासी न कल रही होगी

तेरे गहनों सी खनखनाती थी , बाजरे की फ़सल रही होगी

जिन हवाओं ने तुझ को दुलराया , उन में मेरी ग़ज़ल रही होगी

– दुष्यंत कुमार

यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है, चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।

मत कहो आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं , सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।

खास सड़कें बंद हैं कबसे मरम्मत के लिए, ये हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है।

मस्लहत आमेज़ होते हैं सियासत के कदम, तू न समझेगा सियासत तू अभी इंसान है।

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए, मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।

होने लगी है जिस्म में जुम्बिश तो देखिए, इस परकटे परिंदे की कोशिश तो देखिए।

गूँगे निकल पड़े हैं जुबाँ की तलाश में, सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिए।

एक जंगल है तेरी आँखों में, मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ।

तू किसी रेल-सी गुजरती है, मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ।

कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हरेक घर के लिए , कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए

ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दोहरा हुआ होगा , मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा
– दुष्यंत कुमार

दुष्यंत कुमार की  प्रमुख कविताएँ :-

'कहाँ तो तय था', 'कैसे मंजर', 'खंडहर बचे हुए हैं', 'जो शहतीर है', 'ज़िंदगानी का कोई', 'मकसद', 'मुक्तक', 'आज सड़कों पर लिखे हैं', 'मत कहो, आकाश में', 'धूप के पाँव', 'गुच्छे भर', 'अमलतास', 'सूर्य का स्वागत', 'आवाजों के घेरे', 'जलते हुए वन का वसन्त', 'आज सड़कों पर', 'आग जलती रहे', 'एक आशीर्वाद', 'आग जलनी चाहिए', 'मापदण्ड बदलो', 'कहीं पे धूप की चादर', 'बाढ़ की संभावनाएँ', 'इस नदी की धार में', 'हो गई है पीर पर्वत-सी'।

 

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