बीजेपी और आरएसएस के राष्ट्रवाद की परिभाषा ही टुकड़े – टुकड़े वाली मानसिकता की है।

राष्ट्रवाद और भारतीय जनता पार्टी का हिंदूवाद एकसाथ नहीं चल सकते. कोई भी व्यक्ति या तो विशुद्ध राष्ट्रवादी होगा या फिर हिंदूवादी होगा, वह दोनों एकसाथ नहीं हो सकता. सैद्धांतिक रूप से सब एक हैं कि सोचविचार की धारा भी हिंदूमुसलमान और हिंदूईसाई में भेद नहीं करती, जबकि आरएसएस का हिंदुत्व
यह भेद करता है. मतलब यह है कि आरएसएस की ‘हम एक हैं’ की व्याख्या कुछ दूसरी है. आइए, देखते हैं कि उस की यह व्याख्या क्या है. हमें उस के लिए यह देखना होगा कि भाजपा ने यह नारा कब दिया था?
भारत में 1990 का दशक और उस के बाद का समय मंडल और कमंडल की राजनीति का काल है. यही समय पिछड़ी जातियों के उभार का है, और यही दौर इस के विपरीत आक्रामक हिंदू आंदोलन का भी है. इसी काल में मुसलमानों को बंधक बना कर मसजिद ध्वस्त की गई और इसी काल में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू की थीं, जिस के विरोध में परांपरावादियों की करतूतों से पूरा देश जल उठा था. संयोग से 1990 में ही डा. अंबेडकर की 100वीं जयंती मनाई गई थी, जिस में सभी राजनीतिक दलों ने अपनेअपने अंबेडकर गढ़े थे. उसी राजनीतिक अभियान में, कांशीराम ने सामाजिक परिवर्तन, विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सामाजिक न्याय और आरएसएस ने सामाजिक समरसता के शब्द डा. अंबेडकर के साथ जोड़े थे. कांशीराम के सामाजिक परिवर्तन के नारे के प्रतिरोध में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सामाजिक न्याय का नारा दिया था, जिस का अर्थ था मौजूदा समाज व्यवस्था में ही न्याय की बात करना. किंतु आरएसएस को सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक न्याय के ये दोनों नारे रास नहीं आए क्योंकि उस की दृष्टि में ये दोनों नारे समाज में मौजूद विघटन को साबित करने वाले थे. इसलिए, उस ने उन के समानांतर सामाजिक समरसता का नया नारा गढ़ा, जिसे उस ने दीनदयाल उपाध्याय का मानव एकात्मवाद कहा.
सामाजिक समरसता की व्याख्या में आरएसएस ने कहा कि जिस तरह हाथ की पांचों उंगलियां समान नहीं होतीं पर उन के बीच समरसता होती है, उसी तरह समाज में भी सब समान नहीं हो सकते पर उन के बीच समरसता होनी चाहिए. यही सामाजिक समरसता है, जिस का अर्थ है, जो जैसा है, वह वैसा ही बना रहे. यानी चमार चमार बना रहे, भंगी भंगी बना रहे, नाई नाई बना रहे, धोबी धोबी बना रहे, ब्राह्मण ब्राह्मण बना रहे, ठाकुर ठाकुर बना रहे और बनिया बनिया बना रहे. बस, उन के बीच समरसता रहनी चाहिए. वे अपनी स्थिति को ढोएं या उस का लाभ उठाएं, कोई आपत्ति न करें.
वास्तव में यह सामाजिक समरसता निम्न जातियों को यथास्थिति में रखने का दर्शन है. इसलिए आरएसएस इस बात की गारंटी नहीं देता कि यदि निम्न जातियां अपना पुश्तैनी धंधा छोड़ कर विकास की मुख्यधारा में आना चाहेंगी, तो उच्च जातियां उन से संघर्ष नहीं करेंगी. अभी तक का अनुभव यही बताता है कि ऐसे मामलों में जातीय संघर्ष को भगवाई तत्त्वों ने रोका नहीं है, बल्कि तेज ही किया है. ऐसी स्थिति में सामाजिक समरसता कैसे बनी रह सकती है? क्या निम्न जातियों के लिए हिंदू धर्मगुरु और धर्मशास्त्र समरसता की बात करते हैं या उन के विरुद्ध विषवमन करते हैं और उन की गरिमा तथा प्रतिष्ठा को नकारते हैं? इन सवालों पर विचार किए बिना, आरएसएस संगठनों के द्वारा डा. अंबेडकर की 125वीं जयंती को सामाजिक समरसता वर्ष के रूप में मनाने का कोई औचित्य नहीं है.
इंडियन ऐक्सप्रैस में आरएसएस चिंतक और भाजपा के महासचिव राम माधव का लेख ‘व्हाट दलित्स वांट’ प्रकाशित हुआ है. वे लिखते हैं कि दलित 4 चीजें चाहते हैं- सम्मान, सहभागिता, समृद्धि और सत्ता. पहली 2 की जिम्मेदारी वे समाज पर डाल देते हैं. और अंतिम 2 के बारे में कहते हैं कि उसे सरकार पूरा कर सकती है. वे जोर दे कर कहते हैं कि दलितों की सम्मान और सहभागिता की ‘भूख’ (वे अधिकार को भूख कहते हैं) के लिए सामाजिक और धार्मिक संगठनों को काम करना चाहिए, तभी सामाजिक समानता आएगी. किंतु अंतिम 2 के लिए उन की खुद की केंद्र व राज्य सरकारें क्या काम कर रही हैं, उस पर उन्होंने कोई प्रकाश नहीं डाला है.
सामाजिक संगठनों की बात तो समझ में आती है परंतु धार्मिक संगठनों से उन का क्या अभिप्राय है? भारत के अधिकांश हिंदू धार्मिक संगठन जातिव्यवस्था में अटूट विश्वास करते हैं. ऐसे धार्मिक संगठनों से, जो आज भी दलितों के मंदिर प्रवेश के विरोधी हैं और स्त्रियों को भी समान अधिकार देने को तैयार नहीं हैं, क्या यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे दलितों को सम्मान और सहभागिता का अधिकार देंगे? सच यह है कि कोई भी हिंदू धार्मिक संगठन जातिव्यवस्था को समाप्त करना नहीं चाहता है, बल्कि उसे और मजबूत करना चाहता है. शंकराचार्य जैसे अनेक धर्मगुरु तो खुल कर जातिव्यवस्था का पक्ष लेते हैं.
राम माधव ने अपने लेख में स्वीकार किया है कि डा. अंबेडकर को स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व की प्रेरणा बुद्ध से मिली थी. सवाल यह गौरतलब है कि उन्हें यह प्रेरणा 2,500 वर्ष पूर्व हिंदूधर्म से क्यों नहीं मिली थी? क्या कोई भी यह मानने से इनकार करेगा कि समानता की शिक्षा हिंदूधर्म देता ही नहीं है, और स्वतंत्रता तथा भ्रातृत्व के शब्द तो उस के शब्दकोश में हैं ही नहीं? लेकिन आरएसएस के विचारक इस सत्य को पूरी तरह नकारते हैं. राम माधव लिखते हैं, जो भ्रामक और सत्य से दूर है, कि किसी भी हिंदू धर्मशास्त्र में विघटनकारी व भेदभावपूर्ण शिक्षा नहीं मिलती है.
उन का कहना है कि ‘जन्मना जातिव्यवस्था’ की जड़ें भले ही प्राचीन समय की वर्णाश्रमव्यवस्था में हैं परंतु वर्णाश्रमव्यवस्था ने कभी भी जातिभेद को मान्यता नहीं दी थी. उन के अनुसार, जातिव्यवस्था उस के बाद आरंभ हुई. इस के समर्थन में वे ऋग्वेद के एक मंत्र (मंडल 5, सूक्त 60, मंत्र 5) का संदर्भ देते हैं- ‘कोई छोटाबड़ा नहीं है, सभी भाईभाई हैं, हमें सब की भलाई के लिए मिल कर कार्य करना चाहिए.’ अगर शिक्षा यह थी तो फिर विघटनकारी और भेदभावपूर्ण जातिव्यवस्था कैसे आरंभ हो गई? लेकिन इस का वे कोई खुलासा अपने लेख में नहीं करते हैं. यह व्यवस्था किन ‘सभी’ के लिए है, इस की चर्चा नहीं की जाती. असल में ‘सभी’ में केवल ब्राह्मण व क्षत्रिय ही शामिल हैं, और कोई नहीं.
आदित्य सिंह
संपादन द लोकनीति।