मेरे भीतर कितने प्रतिशत इंसान बचा हुआ है?
मेरे भीतर कितने प्रतिशत इंसान बचा हुआ है?
उस रात टायर पंक्चर होने के बाद उसपर क्या बीत रही होगी। कैसी अनहोनी घट रही होगी, वो डर कैसा होगा जैसे चारो ओर अंधेरा और आसपास चार जंगली जानवर। एक अकेली लड़की के लिए उसकी इज्जत तार-तार होने का डर, जान से जाने का डर। कैसा लगता है जब पल में महसूस हो कि अगले ही पल हमारे साथ कुछ इतना बुरा हो कि कोई हमें जिंदा जला दे वो भी बिना किसी गलती के, गलती भी सिर्फ इतनी कि वो एक लड़की थी, एक ऐसी लड़की जिसकी देह से चार जानवरों ने एक गंदा सा खेल खेला और फिर उसे जिंदा जला दिया।
सोचकर देखिए न एक सुनसान पुल जिसपर से कोई नहीं गुज़रता उसके ठीक नीचे जब प्रियंका अकेली थी और सामने चार बलात्कारी। वो किस कदर चीख़ रही होगी, क्या अंदाज़ा है इस समाज को? क्या हम महसूस कर सकते है उस चीख़ को? उसकी इज्जत लूटने के बाद उसपर कैरोसिन डाला गया। क्या हम उस दर्द का अंदाज़ा भी लगा सकते है जब वो ज़िंदा थी और जल रही थी चीख़ रही थी। क्या होगी उसकी मानसिक हालात उस वक़्त, कैसे हम किसी को ज़िंदा जला सकते? कैसे हम किसी की ज़िंदगी के साथ इस कदर खेल सकते है?
कितने प्रश्न है, उत्तर एक भी नहीं। हम प्रश्नों से घिरा हुआ समाज बना रहे हैं, ऐसे प्रश्न जो डराते है, बेहद डराते है, इतना डराते है कि कुछ कहते नहीं बनता। उत्तर दूर बैठे तमाशा देख रहे होते हैं। परिस्तिथियां इतनी ख़राब हो चुकी है कि शब्द नहीं बचे। आप चाहे हजारों लेख हजारों कविताएं लिख ले, आप चाहे लाखों मोमबत्तियां जला ले, लेकिन कड़वा सच सिर्फ इतना है कि आप कुछ नहीं उखाड़ सकते। जिन लोगों को हमने देश चलाने का ठेका दे रखा है वे सत्ता के लालची लोग सरकारों को बनाने में व्यस्त है। सालों-साल छोटे-बड़े चुनाव होते रहते हैं, वे गठजोड़ की राजनीति करते रहते है, उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि देश में लड़कियां नोची जा रही है।
दिल्ली की दामिनी के गुप्तांग में लोहे की रॉड डालने से लेकर हैदराबाद की प्रियंका को जिंदा जलाने तक कुछ भी नहीं बदला। सरकारें आई-सरकारें गई कुछ नहीं बदला। सच कहूं तो अब थकान सी होती है। अपनी ज़ुबानों को गिरवी रख कितना कुछ सहते है हम, हर रोज, दिन-रात, समय के हर पहर।