जबलपुर : विक्रम अवार्ड मिलने की तो खुशी, लेकिन क्यों छलका जानकी का दर्द
जबलपुर : विक्रम अवार्ड मिलने की तो खुशी, लेकिन क्यों छलका जानकी का दर्द
- नेता और मंत्रियों ने स्वागत तो बहुत किया लेकिन इससे पेट नहीं भरता -जानकी की मां
- जानकी की मां पुनिया बाई कहती है कि जानकी ने देश और विदेश में नाम तो बहुत कमाया लेकिन घर की आर्थिक स्थिति जस की तस बनी हुई है
- मजदूरी करके पूरा परिवार भरता है अपना पेट
द लोकनीति डेस्क जबलपुर (सिहोरा)
प्रदेश सरकार ने इस वर्ष विक्रम अवार्ड की घोषणा कर दी है। जबलपुर जिले की सिहोरा तहसील के कुर्रे गांव की दिव्यांग जानकी बाई गोंड़ को दिव्यांग वर्ग में ओलंपिक एशियन गेम एवं राष्ट्रीय खेलों में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने पर विक्रम अवार्ड दिया जाएगा। दिव्यांग जानकी विक्रम अवार्ड मिलने पर खुश तो बहुत हैं, लेकिन सिस्टम को लेकर उनका दर्द शनिवार को “द लोकनीति” से बातचीत करते हुए छलक उठा। जानकी कहती है कि मंत्री ,विधायक और सांसदों ने उसका सम्मान तो बहुत किया लेकिन सम्मान से पेट नहीं भरता। वह सरकार से कुछ नहीं चाहती उसका तो सिर्फ एक ही कहना है कि सरकार उसे एक सरकारी नौकरी दे दे तो वह अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को बेहतर कर सके।
जब मजदूरी का पैसा मिलता है तब जलता है चूल्हा : जानकी मध्य प्रदेश की पहली दिव्यांग महिला हैं, जिसने दिव्यांग वर्ग में अंतरराष्ट्रीय चैंपियनशिप में मेडल जीता। देश विदेश में भारत का प्रतिनिधित्व करने करने के बावजूद जानकी के घरवाले अभी भी उस कच्चे मकान में रहने को मजबूर हैं जो कभी भी गिर सकता है। जानकी के पिता राम गरीब बकरी चराते हैं, वहीं परिवार के दूसरे सदस्य मजदूरी करने का काम करते हैं। जब मजदूरी का पैसा मिलता है तब घर में चूल्हा जलता है।
सिर्फ प्रचार प्रसार के लिए किया जाता है मेरा उपयोग : जानकी कहती हैं कि शासन और प्रशासन सिर्फ प्रचार प्रसार के लिए मेरा उपयोग करते हैं। विधानसभा चुनाव के दौरान मेरी उपलब्धियों को देखते हुए स्वीप कैंपेन अभियान के अंतर्गत मुझे स्वीप आइकॉन बनाया तो गया, लेकिन इसके बाद शासन और स्थानीय प्रशासन ने मुझे पूछा तक नहीं।
“मैंने इतना करो लेकिन अपने घर वालों के लाने कछु कर न सकी” : जानकी की मां पुनिया बाई कहती है कि जानकी ने देश और प्रदेश में नाम तो बहुत कमाया लेकिन घर की आर्थिक स्थिति जस की तस बनी हुई है। घर में आठ लोग साथ रहते हैं। सरकार ने आर्थिक रूप से मदद के नाम पर कुछ भी नहीं दिया। जब भी कहीं जानकी को बुलाया तो शाल और श्रीफल देकर विदा कर दिया। मेरी बेटी देख नहीं सकती लेकिन मन की आंखों से सब कुछ समझ सकती है। वह मुझसे अक्सर कहती है कि “मैंने इतना करो लेकिन अपने घर वालों के लाने कछु कर न सकी”।