वृद्ध महिलाओं के प्रति बढ़ती उपेक्षा : एक सामाजिक चुनौती : डॉ. श्याम सिंह 

वृद्धजनों के प्रति सम्मान और उनकी देखभाल के लिए समर्पण को, किसी भी समाज की सभ्यता का पैमाना माना जाता है लेकिन समय परिवर्तनशील है और बदलते समय के साथ मानव की मान्यताएँ भी बदलने लगती हैं। जिस भारतीय समाज में वृद्धावस्था को अनुभव की पूँजी माना जाता था, बुजुर्गों का मान-सम्मान था, आज उसी समाज में वृद्धजन बोझ बनकर रह गये हैं। वृद्धजनों में, वृद्ध महिलाओं की स्थिति और भी अधिक दयनीय है क्योंकि भारतीय समाज में प्रारंभ से ही महिलाएं हाशिये का शिकार रही हैं और पितृसत्तात्मक प्रणाली के कारण उन्हें बराबरी के हकों से वंचित किया जाता रहा है। महिलायें अपने अस्तित्व और अस्मिता के लिए लड़ती रही हैं। 

वर्तमान समय में भी स्त्रियों की स्थिति संतोषजनक नहीं है। वृद्ध स्त्रियों के जनांकिकीय आंकड़ें उठाकर देखें तो ज्ञात होता है कि संपूर्ण वृद्ध जनसंख्या में वृद्ध स्त्रियों की संख्या अधिक बढ़ रही है। 2011 की जनगणना के अनुसार 104 मिलियन वृद्धजन हैं, जिसमें 53 मिलियन वृद्ध स्त्रियां और 51 मिलियन वृद्ध पुरुष हैं। इस प्रकार संपूर्ण वृद्ध जनसंख्या 8.30 में 7.7 प्रतिशत वृद्ध पुरुष और  8.4 प्रतिशत वृद्ध स्त्रियां हैं।   

अभी हाल ही में नेशनल स्टैटिक्स आर्गेनाईजेशन की रिपोर्ट में यह अनुमान लगाया गया है कि 2031 में बुजुर्गों की संख्या 19.38 करोड़ पर पहुंचने का अनुमान है, जिसमें 9.29 करोड़ वृद्ध पुरुष और 10.09 करोड़ वृद्ध स्त्रियां शामिल होंगी। वर्तमान में वृद्ध जनसंख्या में लिंगानुपात प्रति 1000 वृद्ध पुरुषों पर 1065 वृद्ध स्त्रियां हैं तथा जीवन प्रत्याशा 68 वर्ष है। वृद्ध जनसंख्या के संबंध में संयुक्त राष्ट्र ने भी आकलन किया है कि भारत में 2030 तक 60 वर्ष के बुजुर्गों की संख्या 19.8 करोड़ तथा 2050 में 32.6 करोड़ हो जाएगी। साथ ही जीवन प्रत्याशा 2050 तक 68 वर्ष से 74 वर्ष होने का अनुमान है। इस प्रकार आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि संपूर्ण वृद्ध जनसँख्या में वृद्ध स्त्रियों की जनसँख्या अधिक है और इसमें निरंतर वृद्धि हो रही है। साथ ही वृद्ध स्त्रियों में वृद्ध विधवा स्त्रियों की संख्या अधिक है। 

इस संबंध में कहा जा रहा है कि भारत में ‘फेमिनाइजेशन ऑफ़ एजिंग’ हो रहा है। अर्थात वृद्ध पुरुषों की तुलना में वृद्ध स्त्रियों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। वृद्ध स्त्रियों की बढ़ती जनसँख्या नीति निर्धारकों के समक्ष एक बड़ी चुनौती के रूप में है। इस चुनौती से निपटने के लिए अपने देश में कोई सार्थक प्रयास और कदम अभी तक नहीं उठायें गयें हैं, जोकि चिंता का विषय है। 

वृद्ध स्त्रियों की बढ़ती जनसंख्या की समस्या के साथ ही अगर वृद्ध स्त्रियों की सामाजिक सुरक्षा की अगर बात की जाए तो शहरों में वृद्ध स्त्रियों की सुरक्षा का आलम यह है कि आए दिन शहरों के किसी न किसी इलाके में अपराधियों द्वारा वृद्ध महिलाओं की हत्याएं हो रही हैं। अभी हाल ही में फरवरी 2022 में दिल्ली के तिलक नगर क्षेत्र में एक 87 वर्षीय वृद्ध महिला के साथ कथित तौर पर रेप का मामला सामने आया था। इसी तरह जनवरी 2022 में अंबेडकर नगर में मकान के विवाद में एक वृद्धा की उसके ही बेटों-बहू और परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा लात-घूसों से पीट-पीट कर हत्या कर दी गई, इसके साथ ही गत माह पूर्व लखनऊ के केशवनगर में रहने वाली विधवा वृद्ध महिला को जायदाद के लिए उनकी ही खुद की बेटी द्वारा जहर देकर जला दिया गया और इस मामले को एक हादसे का रूप देने का प्रयास किया गया। 

इसी प्रकार कुछ वर्ष पूर्व नवम्बर, 2017 में लखनऊ के सरोजनीनगर में अकेले रहने वाली बुजुर्ग महिला लूसी की हत्या एवं मई, 2017 में रेलवे से रिटायर्ड बुजुर्ग कृष्णदत्त और उनकी पत्नी माधुरी की हत्या इत्यादि घटनाओं से यह सच सामने आ गया है कि घरों में रहने वाली बुजुर्ग महिलाओं की अनदेखी और उनकी सुरक्षा कानून व्यवस्था पर सवाल खड़ा करती है। 

बुजुर्गों पर लगातार हो रहे हमले हमारी पुलिस व्यवस्था की नाकामी को बयां करते हैं। वर्तमान समय में बुजुर्ग महिलाओं के प्रति लगातार हो रही हिंसा और उपेक्षा चिंता का विषय है। कमजोर कानून व्यसवस्थास के कारण आये दिन वृद्ध स्त्रियों के साथ लूट-पाट, मार-पीट और हत्या की घटनाएं होती रहती हैं। चाहें नगरीय हो या ग्रामीण क्षेत्र, आंकड़े इस बात को स्पष्ट  करते हैं कि वृद्ध महिलाओं के प्रति संवेदनहीनता दयनीय होती जा रही है। वृद्ध स्त्रियों की उपेक्षा का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अभी कुछ माह पहले मुंबई में एक वृद्ध महिला ने इमारत की 11वीं मंजिल से कूदकर आत्मतहत्या  कर ली थी। वृद्ध स्त्रियों के द्वारा उठाए गए ऐसे कदम पर गंभीर चिंतन और मनन करने की आवश्याकता है। हम अपनी जड़ों से यूं कायराना तरीके से दूर होते रहे तो आने वाले समय में बुजुर्ग स्त्रियों का सामाजिक परिवेश समूचे समाज को कटघरे में ला देगा!

इसी तरह गत वर्ष पूर्व मुंबई के लोखंडवाला इलाके के पास कॉलोनी में स्थित एक फ्लैट से वृद्ध महिला आशा साहनी का कंकाल मिलने की घटना हमारे सामने आयी थी। ऐसी घटनाएं अब बहुधा सुनी और पायी जाने लगी हैं। यदि घटना की तह में जाएं तो महसूस होगा कि वह एक बूढ़ी औरत का कंकाल नहीं था बल्कि लगातार मरते हुए पारिवारिक रिश्तों और छिन्नो-भिन्न मानवीय संवेदनाओं की मृत संरचना थी। परिवारिक पृष्ठाभूमि से देखा जाए तो शिक्षित और समृद्ध होने बावजूद बुजुर्ग महिलाओं की उपेक्षाएं बढ़ाती जा रही हैं। आशा साहनी कई कमरों के अपने बड़े फ्लैट में चार साल पहले पति की मौत के बाद अकेली रहती थीं। यूं तो साहनी का इंजीनियर बेटा, बहू और बच्चे अमेरिका में रहते थे। ऐसे में सवाल यह उठता है कि जब संसाधनों की संपन्नाता थी और निर्भताएं सीमित थीं तो इतनी घोर उपेक्षाएं कैसे उपजीं ? 

परदेश में बड़े-बड़े पैकेज के साथ रहना-बसना आधुनिकता की दौड़ का सुखद पहलू हो लेकिन उसकी परछाइयां बड़ी भयानक और अमानवीय चित्र गढ़ रहीं हैं। बुजुर्गों को अकेला रहना तथा किसी परिजन से बेहद कम मिलने का सिलसिला उन्हेंन मानसिक और भावनात्माक रूप से खालीपन और असहाय बना ही डालता है। जैसा कि साहनी ने भी अपने बेटे से आखिरी बार करीब डेढ़ वर्ष पहले बात की थी। तब उन्हों ने बेटे से गिड़गिड़ा कर कहा था कि अब इस अवस्थाप में उनसे इस प्रकार नहीं रहा जाता। इसलिए या तो बेटा मुंबई लौट आए या उन्हें  अमेरिका ले जाए। यह भी मुमकिन ना हो तो वह घर में अकेले रहने के बज़ाय किसी वृद्धाश्रम में रहना पसंद करेगी। 

इस स्थिति में बुर्जुग मां की उम्मी दें तोड़कर साहनी के बेटे ने फोन करना भी बंद कर दिया था। परिणामत: वह भावनात्मजक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से वह टूट चुकीं थी। समय बीतता गया और फिर बरसों बाद आशा साहनी का बेटा जब किसी काम के सिलसिले में मुंबई आया। वह मां से भी मिलने पहुंचा तो मंजर कुछ और ही था।  उस बंद घर के अंदर बिस्तर पर उसे मां नहीं मिलीं। बल्कि मां का कंकाल मिला था। यह अकाल मौत अकेलेपन, अवसाद, भूख और कमजोरी की हालत में यह मौत थी। क्या बेटे और बहू के साथ मां की ख़ुशी के लिए घर में एक कोना सुरक्षित नहीं किया जा सकता था? मां और बेटे का रिश्ताी दुनिया में सबसे आत्मीय माना जाता है लेकिन इस घटना ने अभिभावक के रिश्तें और संरक्षण के पीछे उपेक्षा का सवाल छोड़ दिया। यह सोचने का वक़्त है कि हम सभ्यता के किस मुक़ाम पर आ गए हैं?,जहां पारिवारिक रिश्तों में भी प्रेम, करुणा और संवेदनाओं के लिए जगह लगातार कम हो रही है। तमाम प्रश्न, और वजहें हमारे सामने हैं और प्रश्ंोथ  के घेरे से मानवता के लिए समूचे समाज के लिए निकालना है। महत्वाकांक्षाओं के सामने परिवार के किसी सदस्यर की इस तरह की मौत का होना बेहद तकलीफ भरा है। 

उत्तराखंड में कुछ वर्ष पहले केदारनाथ यात्रा के दौरान आई बाढ़ में मारे गए लोगों के परिजन आज भी उन पहाड़ियों में अपने परिजनों के अवशेष ढूंढते हैं। उन्हें पता है कि वो ज़िंदा हैं या नहीं । बस इस उम्मीद में वहां भटकते हैं कि शायद उनसे जुड़ी कोई निशानी मिल जाए तो विधि-विधान से उनका संस्कार कर सकें। इसलिए भी, कि उनके वृद्ध परिजनों के अवशेष भी कहीं लावारिस न पड़े रहें। इतने सालों बाद भी बहुत से ऐसे लोग सिर्फ इस उम्मीद में वहां समय निकालकर खोजने पहुंचते हैं। वहीं एक ओर बुज़ुर्ग महिला अपने घर में डेढ़ वर्ष पहले मृत होती है और उसे कोई नहीं ढूंढता,उससे कोई मिलने नहीं पहुंचता। पास-पड़ोसियों तक ने भी नहीं, जिन्हें वो एक-आध बार दिख भी जाती रही होंगी। 

लंबे समय तक बंद दरवाज़ा भी यह संकेत नहीं दे सका कि आखिर वो महिला कहां गईं ? ऐसी मृत्युल को बदनसीबी कहें या तुच्छंतापूर्ण अनादर। वह एक इंसान भी थी, असहाय महिला और मां भी । बच्चों की परवरिश के लिए हर तकलीफ उठाने वाली मां का ऐसा अंत हमारे समाज और समय की कमजोरी को दर्शाता है। 

अब्बास ताबिश की मशहूर पंक्तियां स्वा भाविक ज़हन में आ जाती हैं – ‘एक मुद्दत से मेरी माँ नहीं सोई 'ताबिश' मैनें इक बार कहा था मुझे डर लगता है।’ और एक मां ने जब कहा कि उसे डर लग रहा है, वो अकेले नहीं रह सकती, तो वो बेटा डेढ़ साल तक इतनी रातें कैसे सोता रहा होगा। अनेक रिश्तेदार, पास-पड़ोसी कैसे अपनी-अपनी ज़िंदगियों में इतने व्यस्त रहे कि डेढ़ वर्ष तक एक महिला का गायब होना ही नहीं जान पाए। फ्लैट में कंकाल ज़रूर बुज़ुर्ग औरत का मिला था मगर मौत शायद पूरे कमजोर समाज की हुई थी। जिसकी जानकारी पे अब लोग शर्मिंदा हैं। कुछ कदम उठाने होंगे कि रिश्तों के ऐसे कंकाल अब दूसरे किसी घर में ना बरामद हों । 

इसी प्रकार की घटना कुछ वर्ष पूर्व गुजरात के राजकोट में भी घटित हुई थी। यहां एक बीमार बुजुर्ग माँ को उसके ही बेटे द्वारा छत की चौथी मंज़िल से फेंककर हत्या कर दी गई थी।  इस घटना ने सम्पूर्ण मानवता और माँ- बेटे के पवित्र रिश्ते को शर्मसार कर दिया था। बीमार और लाचार माँ जयश्री बेन नाथवानी एक रिटायर्ड टीचर थीं। 

दरअसल यह मामला सितम्बर, 2017 का था, तब पुलिस ने इस घटना को आत्महत्या मानकर फ़ाइल बंद कर दी थी, लेकिन कुछ समय पश्चात् पुलिस को एक गुमनाम चिट्टी मिली थी, जिसके बाद पुलिस ने केस की जांच दोबारा शुरू करते हुये घर में लगे सीसीटीवी के फुटेज खंगाले। कैमरे के कैद वीडियो में जयश्री बेन को आखरी बार उनका बेटा संदीप छत पर ले जाते दिखा। पुलिस की काफी छानबीन के बाद बेटे ने अपने जुर्म को कुबूल किया। इसी तरह 2 वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले में एक दिल दहलाने वाला एक वीडियो सामने आया था, जिसमें एक बहू अपनी सत्तर साल की सास की बेरहमी से पिटाई करती नजर आ रही थी। यह घटना भी बुजुर्ग महिलाओं की दयनीय स्थिति को स्पष्ट करती है। 

जीवन का हर संभव सुख-चैन समर्पित करने वाली मांओं का अंत और उपेक्षा की स्थिति भारत भर में दयनीय हो रही है। अक्स-र वृद्ध महिलाओं के प्रति संवेदनाओं का कुचला जाना और नजरअंदाज किया जाना दिखाई भी देता है। ऐसे में इन बूढी मांओं की फिक्र और संवेदनाओं का परिवेश बनाए रखना व्य क्तिगत ही नहीं शासन और नीतियों के लिए भी आवश्यदक है। बस हम अनेक उपेक्षाओं के सामने एकजुटता से खड़े नहीं हो पाते हैं। वहीं ऐसे कानून भी नहीं लाए जा सके हैं जो इन प्रतिबद्धताओं को मजबूत कर सकें। सामाजिक संवेदनहीनता परिवार व समाज को संकीर्ण कर रही है। 

आज जब सारी दुनिया महिलाओं को समर्पित ‘वर्ल्ड वीमन्स डे’ मना रही है तो हमें एक सभ्य समाज का नागरिक होने के नाते यह विचार करना चाहिए कि हम अपने घर, समाज और आस-पास मौजूद बुजुर्ग महिलाओं की कितनी सुरक्षा कर पा रहे हैं, उन्हें कितना सम्मान दे रहे हैं? सवाल हमारे ऊपर भी खड़ा होता है कि जो समाज सारी उम्र सेवा लेने के बाद जीवन की संध्या में अपने देश की आधी आबादी को शांति, सुरक्षा और सम्मान नहीं दे सकता उसे हम सभ्य समाज कैसे कह सकते हैं? बुजुर्ग महिलाओं के साथ बढ़ती वृद्ध दुर्व्यवहार और अत्याचार की घटनाएं सिर्फ पीड़ादायक ही नहीं, बल्कि सभ्य समाज की उस सच्चाई को उद्घाटित कर रही हैं जहाँ हर बुजुर्ग महिला अपने वर्तमान से दुःखी और भविष्य को लेकर आशंकित है।

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