"अतिथि कब जाओगे"..? कोरोना
फरवरी में विदेश से अनचाहा मेहमान की तरह भारत आए कोरोना ने यहां अब छः महीने से ज्यादा समय पूरे कर लिया है। करोड़ों बीमारी की जद में और लाखों मौत के साए में, तो हजारों की जानें जा चुकीं हैं। रोज पीड़ितों का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है। इस महामारी की दहशत में लोग यही दुआ कर रहे –
” अतिथि कब जाओगे..?”
पिछले साल इसी दिन यानि 19-01-19 को पूरे 45 दिन बारिश और बदली के बाद भोपाल शहर के आकाश से सूरज बाबा के दर्शन हुए थे और कड़क धूप खिला था। बरसात के पिछले सीजन में समय से बारिश नही हुई और फसलों की बोनी देर से हुई। आधे सावन आते, जैसे तैसे फसल खड़ी हुई ही थी कि सोयाबीन किसानों को 42 दिन की लगातार बारिश ने अपनी फसल को खेतों पर सड़ते देखने पर मजबूर होना पड़ा। सीलन भरे घर मे कपड़े-बिस्तरों से बदबू आने लगी थी।
कई शहर की सड़कों पर नावें चलाकर आपदा राहत दी गईं। पुल पुलिये पूर में समाए रहे। हर कोई उस लगातार बारिश से ऊब गया था। गणेश जी का उत्सव भीगा – दुर्गा जी और गरबा के पंडाल भी अतिवर्षा के शिकार हुए। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में तो जहाँ आषाढ़ में बारिश के लिए दुआएं और मेंढक-मेढकी की शादियां करवाई जा रही थीं और वहीं आधे कार्तिक मास में वरुण देवता को विदा हो जाने की दुआएं मांगी जाने लगी थीं। सब बारिश से यही कह रहे थे – “अतिथि कब जाओगे..? ”
पहली खेप में आए उस लगातार बरसात के दिनों के बाद जब आज ही के दिन पिछले बछर मैंने ही अनायास भोपाल की सड़कों पर धूप खिला देखा तो सड़क पर अपनी परछाई देख कर मेरे मन ने इस कविता की रचना कर डाली थी।
हालांकि इतना पार्श्व भूमिका बताने की जरूरत नही थी । मेरी कविता स्वयं सक्षम है , लेकिन यह बताना इसलिये जरूरी था कि हम इतनी जल्दी आपदा को भूलकर आगे बढ़ जाते हैं कि हमे वो कड़वे दिन की पुनः परिकल्पना मुश्किल हो जाता है , जीवन मे आगे बढ़ने के लिये यही जरूरी भी है।
इसी तरह हम कोरोना के इस विपत्ति काल को भूल जाएंगे । बस किस्से कहानियों कविताओं में शायद वह भी जिंदा रहे । कुछ घाव गहरे भी हो रहे हैं , जिसकी याद शायद पीढ़ियों तक सालता रहे । अब बहुत हो गया ..! ईश्वर करे यह विपत्ति का समय जल्द निकल जाए । और महामारी की इस घनी बादलों के बाद एक ऐसा सूरज निकले जो पिछले साल की बारिश और फिर धूप खिल जाने पर लिखी मेरी इस कविता की तरह….
मुद्दतों के बाद आज सड़क पर अपनी परछाई देखी..!
कहाँ हो गए थे गुम ,कहाँ गए थे छुप,
न तुम दिखते थे न तुम्हारी भी परछाई देखी ।
सुना है भूत के पांव नही होते ,
सुना तो यह भी , कि उसकी भी न किसी ने परछाई देखी..!
बरसातें , कभी सपने थे जिन आंखों के ,
धूप से आज उनके चेहरे चौंधियाई देखी ।
भूल गए थे सूरज बाबा को,
मेरे शहर की गलियों में वह रोशनी बिखराई देखी ।
सड़कें थीं लबालब, नौका विहार था तब,
उन सड़कों पर तेरी आज अंगड़ाई देखी ।
बरखा रानी तू मौसी मेरी,
जिस दिन से तू आई मेरी
धरती माँ मुस्कुराई देखी ।
देर से आना ,झूम के गाना
नव लय -राग सुनाई देखी ।
छत पर सूखे कपड़े डालें
बार-बार हम रखें-निकालें
ऐसी नही बेवफाई देखी ।
तन भीगा, मन भीगा-भीगा,
छप्पर, फसल, पुल- पुलिया भीगा,
घर भीगा घर का चिराग भीगा ,
ये कैसी रुत आई देखी ।
आई थी मन्नतों से , नाज़ों से पली पलकों में रही,
अब जा कर सजाना बगिया जो किसी की उजड़ाई देखी ।
तुम हो पहुना बरस महीना,
करूँ तेरी कैसे बिदाई देखी..!
गर्मी के वो चार महीने ,काटे थे तेरे इंतज़ार में,
सावन में फिर कौन पपीहा ,बैठे बेकरार थे ।
रोज रोज के ताने सुन सुन,
प्रियतमा की रुसवाई देखी ।
पता है फिर बरसोगी ,कहाँ मानोगी,
मेरी खुशी में तू भी तो है –
मुस्कुराई देखी ।
शहर में मेरे इतने दिन मेहमान रहे,
मेरे दुख से तुम कैसे अनजान रहे ।
खो गया था मैं भी कहीं,
याद सबकुछ आ गया जब ,
आज इतना ही…
” अपनी परछाई देखी ..!”