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"नमस्ते जी! मैं आपकी साइकिल लेकर जा रहा हूं। हो सके तो मुझे माफ कर देना जी"

गौतम कुमार 

कोई चोरी कब करता है या कोई चोर का बनता है। इन दोनों में काफी अंतर है, चोरी करना और चोर बनना दोनों अलग हैं। चोरी आदमी अपनी मजबूरी में भी कर सकता है, चोरी आदमी अपनी जिज्ञासाओं को मिटाने के लिए भी कर सकता है लेकिन इन दोनों चोरी में एक बहुत बड़ा अंतर है वह यह कि एक अपनी जरूरतें पूरी करवाता है और दूसरा वही काम बेबस होकर, लाचार होकर मजबूरीवश करता है। ऐसा ही एक मामला राजस्थान से आया है।
यहां चोरी तो हुई है लेकिन उसे आप चोर ना कहकर मजबूर कहें तो शायद उनके इस मजबूरी और उस विवशता को आप समझ सकेंगे। यहां एक मजबूर श्रमिक अपने घर, अपने गांव जाने के लिए रात में किसी की एक साइकिल चुरा लेता है। लेकिन इस चोरी को मैं मजबूरी इसलिए कह रहा हूं क्योंकि वह साइकिल तो चुराता है पर साथ में एक लेटर छोड़ जाता है साइकिल के मालिक के नाम।

उस लेटर में लिखा है

“नमस्ते जी! मैं आपकी साइकिल लेकर जा रहा हूं। हो सके तो मुझे माफ कर देना जी। मेरे पास कोई साधन नहीं है। मैं पैदल नहीं जा सकता क्योंकि मेरा बेटा विकलांग है। हमें किसी भी तरह बरेली तक जाना है हो सके तो मुझे माफ कर देना। आप का कुसूरबार एक यात्री।” और उसके नीचे जहां हम लिखते हैं आपका आज्ञाकारी निवेदक या जो भी उसके स्थान पर वहां लिखा हुआ है “मजदूर” या शायद “मजबूर”।

मैंने ऊपर ही कहा था आपको, चोरी में और मजबूरी में फर्क सिर्फ इतना है कि एक में विवशता होती है और दूसरे में लोभ।

उस मजबूर मजदूर ने यह कदम अपने विकलांग बेटे को घर पहुंचाने के लिए उठाया अगर वे दोनों ठीक होते तो किसी ना किसी तरह चलकर, रेंगकर, दौड़कर घर पहुंच जाते। लेकिन एक विकलांग बेटे को ले जाने के लिए उसे किसी ना किसी साधन का सहारा चाहिए था और यह सहारा उसे एक साइकिल में दिखी। हो सकता था कि वह बिना किसी सूचना के बिना कुछ बताए साइकिल लेकर आराम से जा सकता था लेकिन क्योंकि वह चोर नहीं था इसलिए उसने अपनी मजबूरी अगले को समझाने की कोशिश की।

यह पोस्ट सोशल मीडिया पर आजकल काफी वायरल हो रही है इसके पीछे लोग चोरी और मजबूरी दोनों का फर्क सही से समझ पा रहे हैं

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