Film Review – निर्देशन, संस्कृति और ऐतिहासिक पहलुओं का देखना हो नजारा तो जरूर देखें शिकारा
5 साल बाद निर्देशक की भूमिका में लौट रहे विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म 'शिकारा' की मूल आत्मा लौटकर वापस आने की है. फिल्म के लगभग सभी दृश्य वापिस उसी जगह आकर ठहरते है जहाँ आखिरी बार उन्हें छोड़ दिया गया था. जैसे कोई शिकारा सिर्फ लेकर जाने का ही काम नहीं करती है, वापिस आने का भी करती है.
इस बात को ऐसे भी समझा जा सकता है कि जिस तरह से शिकारा का नाविक यात्रियों को घुमाकर वापिस ले आता है. उसी तरह से फिल्म शिकारा के नाविक विधु विनोद चोपड़ा किरदारों को भविष्य में घुमाकर उस अतीत में ले आते हैं जहाँ से उन्होंने चलना शुरू किया था.
फिल्म एक प्रेम कथा है जिसने ट्रैजेडी की चादर ओढ़ रखी है. फिल्म के पहले फ्रेम में संकरी गलियों में तैरता हुआ कैमरा दर्शकों को ऐसा एहसास कराता है जैसे वे हक़ीक़त की किसी शिकारा में बैठे हो. ये एक खूबसूरत रचनात्मकता है जिसे पूरी फिल्म में बनाकर रखा गया है. कैमरे को मानो कश्मीर की सुंदरता का आशीर्वाद मिल गया हो.
निर्देशक ने ऐतिहासिक पहलुओं के अलावा कश्मीरी संस्कृति को भी बखूबी छुआ है. शरणार्थी कैम्प में रह रहे कश्मीरी पंडित अब उस तरह से शादी समारोह नहीं करते. अपनी जड़ों से निर्वासित होने के कारण उनकी अपनी संस्कृति पर भी पकड़ ढीली हो चुकी है.
कहानी इस तरह से लिखी गयी है कि फिल्म के पहले हाफ में किरदार जिन पदचिन्हों को छोड़कर आते हैं दूसरे हाफ में वे जाने-अनजाने उन्हीं पदचिन्हों पर लौट आते हैं. ये देखकर लगता है मानो निर्देशक सरकार से कहना चाह रहा हो कि इन कश्मीरी पंडितों को भी उनकी जड़ों पर पहुँचा दिया जाए.
फिल्म का आखिरी संवाद एक गहरी छाप छोड़कर जाता है. जब मुख्य नायक एक कश्मीरी बच्चे से कहता है- “ऐसे क्या देख रहे हो?” तो जवाब में वह बच्चा अपने दोस्त की ओर इशारा करते हुए कहता है- “इसने कश्मीरी पंडित नहीं देखा”
विधु यहां दिल जीत लेते हैं. यह संवाद बीते तीस सालों की त्रासदी को एक फ्रेम में लाकर खड़ा कर देता है. दरसअल बच्चे का ये जवाब, जवाब की शक्ल में सवाल है. इस मुल्क़ ने भी इन तीस सालों में कश्मीरी पंडितों को नहीं देखा. मगर क्यों?
-विशाल वर्मा