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 मार्क्सवादी विचारधारा मूल रूप से भौतिकवादी है, जबकि संस्कृति आस्था और धर्म का संयोग है, अतः इन दोनों का सम्बंध अनुचित है -youngthinkers conclave 

 मार्क्सवादी विचारधारा मूल रूप से भौतिकवादी है, जबकि संस्कृति आस्था और धर्म का संयोग है, अतः इन दोनों का सम्बंध अनुचित है
-youngthinkers conclave 

 

  • यंग थिंकर्स कॉन्क्लेव द्वारा आयोजित किए जा रहे सत्रों की कड़ी में 2 महत्वपूर्ण विषयों पर सत्रों का आयोजन किया गया।
  • ज्ञान, दर्शन की भारतीय दृष्टि महत्वपूर्ण
  • शाम का सत्र 'Disindianising Indians: Post Modernism and Cultural Marxism'  प्रख्यात वक्ता श्री प्रसन्ना देशपाण्डे जी द्वारा संबोधित किया गया

द लोकनीति डेस्क भोपाल 
शाम का सत्र 'Disindianising Indians: Post Modernism and Cultural Marxism' (भारतीयों का अभारतीयकरण- उत्तर आधुनिकतावाद एवं सांस्कृतिक मार्क्सवाद) विषय पर आयोजन किया गया, जिसे प्रख्यात वक्ता श्री प्रसन्ना देशपाण्डे जी द्वारा संबोधित किया गया।

उन्होंने विषय को आरम्भ करते हुए कहा कि मार्क्सवादी विचारधारा मूलतः सांस्कृतिक मूल्यों के विरोधी के रूप में जानी जाती है, लेकिन मार्क्सवाद का सांस्कृतिक विचारधारा से सम्बंध हमें सांस्कृतिक मार्क्सवाद को जानने के लिए मजबूर करता है।

उन्होंने बताया की मार्क्सवादी विचारधारा मूल रूप से भौतिकवादी है, जबकि संस्कृति आस्था और धर्म का संयोग है, अतः इन दोनों का सम्बंध अनुचित है। प्रसन्ना जी ने बताया कि मार्क्सवादी विचारधारा का उद्देश्य राजनैतिक नहीं वरन सांस्कृतिक क्षेत्र में नियंत्रण रहा है।

आगे बढ़ते हुए प्रसन्ना जी ने Post Modernism (उत्तर आधुनिकतावाद) को परिभाषित करते हुए भारतीयों के लिए इसके महत्व को बताया। वक्ता ने बताया कि यदि आधुनिकतावाद भारत के उपनिवेशीकरण का कारण रहा है, वैसे ही उत्तर-आधुनिकतावाद भी भारत के उपनिवेशीकरण का प्रयास ही है।

उन्होंने जोर देकर कहा कि भारतीयों को विचार, ज्ञान, दर्शन आदि को भारतीय दृष्टि से देखने व उसी के अनुसार उनका अनुसरण करना चाहिए। इन सभी का विदेशी दृष्टिकोण से अनुसरण उचित नहीं।
अंत में उन्होंने प्रतिभागियों को भारतीय उदारवाद के समुचित विश्लेषण का महत्व समझाते हुए भारत के अनेकता लिए हुए सांस्कृतिक परिवेश और परम्पराओं को पश्चिमी दृष्टि के अनुसार अपनाने का विरोध किया। सत्र के अंत में वक्ता ने प्रतिभागियों की शंकाओं का समाधान किया।

भारत को जीता नहीं जा सकता, यहाँ सिर्फ जीया जा सकता है

सुबह का सत्र ‘भारतीय ज्ञान परम्परा के उत्कर्ष- लोक और शास्त्र’ विषय पर कपिल तिवारी जी के वक्तव्य के साथ संपन्न हुआ। कपिल जी मध्यप्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग के अंतर्गत आदिवासी लोककला अकादमी के निदेशक रहे हैं एवं आदिवासी लोक संस्कृति विषय के आप प्रख्यात विशेषज्ञ हैं।

कपिल जी ने अपने व्याख्यान में ज्ञान की विवेचना करते हुए बताया की ज्ञान को नवीन या प्राचीन के भेद में विभाजित नहीं किया जा सकता और ना ही ज्ञान की तुलना विद्वता से की जा सकती है, भारतीय ज्ञान परम्परा सनातन है, जो पुरातन काल से ही समयानुसार अपने में निरंतन बदलाव करता जा रहा है। 

कपिल जी ने स्वाध्याय के महत्त्व को बताते हुए उसके सही अर्थ को बताया, उन्होंने बताया स्वाध्याय का अर्थ है ‘स्वयं का अध्ययन’ क्योंकि सदैव ही परिवर्तन की यात्रा खुद से ही शुरू होती है। कपिल जी ने आधुनिकता पर भी प्रकाश डालते हुए कहा कि आधुनिकता को पश्चिमी देशों के अनुकरण की तरह न देखते हुए उसे स्वयं की चेतना के आधुनिकीकरण की तरह देखना चाहिए। 

कपिल जी ने आगे बढ़ते हुए कहा कि भारत एक ऐसा देश है जिसे जीता या हारा नहीं जा सकता, यहाँ सिर्फ जीया जा सकता है। अंत में प्रतिभागियों के प्रश्नों का उत्तर देते हुए बताया की लोक जीवन की तरह है और ज्ञान शास्त्रों की तरह, अतः भारतीय ज्ञान लोक परम्पराओं के माध्यम से अनुभव किया जा सकता है

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