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बड़वानी में विजय दिवस के अवसर पर, शहीदजनों के परिवार को किया सम्मानित

बड़वानी में मनाया विजय दिवस,बड़वानी कार्यक्रम के दौरान कलेक्टर, पुलिस अधीक्षक, नगर पालिका अध्यक्ष, 1971 के युद्ध के वीर सैनिकों का किया सम्मान

 

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बड़वानी 16 दिसम्बर / भारत – पाकिस्तान के युद्ध में दुश्मनों के दाॅत खट्टे कर देने वाले हम सैनिको को  सेवा निवृति के पश्चात् 27 साल में पहली बार किसी कार्यक्रम में बुलाया गया है, इसलिये हमारी आँखें सजल हो गई है। विजय दिवस पर आयोजित इस कार्यक्रम के लिये राज्य शासन बधाई की पात्र है, जिसने पहली बार इतना भव्य कार्यक्रम करवाकर हम सैनिको को मान – सम्मान दिलवाया है। 
    बड़वानी से सन 1971 के युद्ध में भाग लेने वाले सेवा निवृत सैनिक श्री राधेश्याम सोनी एवं श्री सीताराम सोनी ने उक्त बाते ‘‘ विजय दिवस ‘‘ कार्यक्रम के दौरान कही । इस दौरान दोनो सैनिको ने सम्मान पाकर सजल नेत्रों से बताया कि जिस आँखों में दुष्मन की गोलिया, गोले डर नही ला पाये वे आँखें आज सम्मान पाकर क्यो गीली है?? इसको वे शब्दो में बाया नही कर सकते है।

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    इस दौरान 1971 के युद्ध लड़े भारत माता के वीर सपूत श्री राधेश्याम सोनी एवं श्री सीताराम सोनी ने अपनी इच्छा व्यक्त करते हुये बताया कि वे आज भी भारत माता की सेवा के लिये तैयार है। अगर आज भी देश की रक्षा के लिये उन्हें कभी बुलावा आयोगा तो वे हाथो में बन्दूक लेकर अभी भी सीमा पर जाने को तैयार है।
    विजय दिवस कार्यक्रम में सम्मान पाकर पूर्व सैनिको ने मंच से ही घोषणा की कि, अभी तक वे अपने घर में बैठे थे। किन्तु राज्य शासन के द्वारा दिये गये सम्मान से वे पुनः अभिभूत हुऐ है। इसलिये अब वे शिक्षण संस्थानो में जाकर युवाओं को देश भक्ति का पाठ पढ़ाकर उनमें जोश भरने का कार्य निःशुल्क करेंगे।

 

1971 का भारत-पाकिस्तान का युद्ध-

विजय दिवस की कहानी को जानना हम सबके लिए जरूरी हो जाता है। खासकर तब जब संसद के दोनों सदन में नागरिकता संशोधन बिल के पास होने के बाद देशभर में हिंसक विरोध प्रदर्शन हो रहा हो।
नए नागरिकता कानून से मुस्लिम वर्ग के नाम को हटाए जाने को लेकर देश भर में जारी विरोध के बीच विजय दिवस को याद करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि 3 दिसंबर  1971 में लाखों बंगाली मुसलमान व हिंदुओं को बचाने के लिए, उनके बहन-बेटियों की इज्जत व उनके सम्मान को बचाने के लिए भारत सरकार ने कड़े फैसले लिए थे। इस फैसले के तहत भारत -पाकिस्तान के बीच मात्र 13 दिनों की युद्ध लड़ी गई और 16 दिसंबर 19971 को भारत ने पाकिस्तान के 93000 फौज को युद्धबंदी बना लिया।
भारत के 1500 वीर जवानों ने बंग्लादेसी लोगों के स्वाभीमान के लिए अपने सीने में गोलियां खाईं। वह शहीद हुए लेकिन उन्होंने करीब 93000 पाकिस्तानी सेना को  आत्म-समर्पण करने व झुकने के लिए मजबू*र कर दिया। 
बात  3 दिसंबर 1971 की है। जब भारत व पश्चिमी पाकिस्तान के बीच पूर्वी पाकिस्तान के लोगों के साथ हो रहे अन्याय को लेकर युद्ध शुरू हुआ था। यह युद्ध 16 दिसंबर, 1971 को भारत-पाकिस्तान के बीच 13 दिन चला। इस युद्ध के दौरान भारत के 1500 सिपाही शहीद हो गए। इंदिरा गांधी ने जब सेनाध्यक्ष को बुलाकर पाकिस्तानी सेना को जवाब देने को कहा था, तो भारतीय सेना ने इसकी तैयारी के लिए कुछ समय मांगा था।  
दुनिया भर में भारतीय फौज की वाहवाही होने लगी। पाकिस्तान अमेरिका व दूसरे देशों के आगे इस मामले में हस्तक्षेप करने के लिए गिड़गिड़ाने लगा था। हालांकि, कई देशों ने इस मामले में पाकिस्तान का साथ भी दिया। लेकिन, हिंदुस्तान की सत्ता इंदिरा गांधी के हाथों में थी। इंदिरा के मजबूत इरादे के सामने किसी का एक नहीं चला। 
इस युद्ध की समाप्ति के आठ महीने के बाद दोनों देशों ने शिमला समझौते पर दस्तखत किए जिसमें भारत ने युद्ध के दौरान हिरासत में लिए गए सभी 93,000 पाकिस्तानी युद्धबंदियों को रिहा करने का फैसला किया। इसके बदले भारत ने पाक के सामने अपनी कई मांग रखी। इन्ही मांगों के तहत बंग्लादेशी नेताओं की सुरक्षीत वापसी व बंग्लादेश नामक एक नए देश का उदय हुआ था। 
युद्धबंदियों को रिहा करने के इस फैसले ने विवाद को जन्म दिया और भारत में कई लोगों ने यह सवाल उठाया कि आखिर क्यों प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कश्मीर की समस्या का समाधान भारतीय शर्तों पर करने के एक सुनहरे अवसर को यूं ही हाथ से जाने दिया।
युद्धबंदियों को रिहा करने के लिए श्रीमती गांधी को किस चीज ने प्रेरित किया? पर्दे के पीछे क्या चला था? क्या कोई ऐसी न टाली जा सकनेवाली स्थितियां थीं, जिनके बारे में लोगों को पता नहीं था?
दरअसल, पाक के जेल में बंद मुजीब व दूसरे नेताओं पर पाकिस्तान के सैन्य अदालत में मुकदमा चलाया गया था। इन मुकदमा के तहत शेख मुजीब व उनके साथियों को फांसी की सजा सुनाई गई थी। यह सूचना इंदिरा के लिए किसी वज्रघात से कम नहीं था। जैसे ही तब के रॉ प्रमुख राम नाथ काव ने इंदिरा को इस बारे में जानकारी दी।
इंदिरा ने मन ही मन शेख मुजीब को आजाद कराकर बंगाली मुसलमानों के आवाज को बुलंद किए रहने के लिए तय किया।  शेख मुजीब के लिए जेल में पाकिस्तान ने कब्र भी बना लिया था। 
यदि पाकिस्तानी सेना मुजीबुर्रहमान को मौत की सजा दे देती, तो यह श्रीमती गांधी के लिए किसी दुःस्वप्न सरीखा होता और दूसरी तरफ यह बांग्लादेश को अनाथ हाल में छोड़ देता। 
यही वजह है कि इंसानियत व लाखों लोगों के भावनाओं को देखते हुए उनके सम्मान व अधिकार के लिए भारत के इंदिरा सरकार ने कश्मीर जैसे मसले पर ध्यान देने के बजाय 93000 पाकिस्तानियों को छोड़ने के बदले में शेख मुजीब व उनके साथियों को आजाद कराकर लाखों लोगों के लिए एक आजाद मुल्क बंग्लादेश बना दिया।

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