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भोपाल: मध्यप्रदेश के 40 फीसदी जंगलों के निजीकरण से ध्वस्त होगा वायुमंडल, क्या शिवराज सरकार के इस फैसले से बचा रहेगा जंगलों का अस्तित्व?

भोपाल: मध्यप्रदेश के 40 फीसदी जंगलों के निजीकरण से ध्वस्त होगा वायुमंडल, क्या शिवराज सरकार के इस फैसले से बचा रहेगा जंगलों का अस्तित्व?

 

  • विकास के नाम पर डैम और रेल पटरियों ने ध्वस्त किए भारत के कई जंगल
  • शिवराज म.प्र. के 40 फीसदी जंगल निजी कंपनियों देकर जंगलों की दुर्दशा में कर दी है बढ़ोतरी
  • भारत का वन क्षेत्रफल है बडा और अंतर्राष्ट्रीय आकडों के मुताबिक भारत के जंगल हो रहे दिनों-दिन कम

भोपाल/राजकमल पांडे। देश की भांति मध्यप्रदेश में भी जंगल और जंगल की सुरक्षा एंव जंगलों के अस्तित्व बचाने के सवालों पर अब शिवराज सरकार ने निजी कंपनियों को जंगल सौप कर मामला उलझ दिया है। यहां उलझा दिया गया तात्पर्य यह है कि शिवराज सरकार अब म.प्र. के 40 फीसदी जंगल निजी कंपनियों को देकर जंगल की सुरक्षा और अस्तित्व बचाने से पल्ला झाड लेना चाहती है। शिवराज का कहना है कि निजी कंपनियों को जंगल सौंपने से रोजगार के संसाधन बढेंगे. जबकि वास्तविकता यह है कि म.प्र. के एक तिहाई ग्रामीण, वनवासी और जंगलों में निवासरत लोग जंगल पर ही आश्रित हैं। फिर शिवराज सरकार किन्हें रोजगार के साधन और संसाधन देने की बात कर रही है। हमेशा से जंगलों पर राज्य या सरकारी सत्ता का नियंत्रण नहीं रहा है। औद्योगिक क्रांति के दौर में ब्रिटिश हुकूमत को पहले पानी के जहाज बनाने और फिर रेल की पटरियां बिछाने के लिये लकड़ी की जरूरत पडत़ी थी। इसी जरूरत को पूरा करने के लिये उन्होंने जंगलों में प्रवेश करना शुरू किया। जहां स्वायत्त आदिवासी और वन क्षेत्रों में निवास करने वाले ग्रामीण समुदायाओं से आमना-सामना हुआ। इसके बाद विकास खासतौर पर आर्थिक विकास के लिये जब संसाधनों की जरूरत पड़ी तब यह पता चला कि मूल्यवान धातुओं महत्वपूर्ण रसायनों जंगली वनस्पतियों लकड़ी और खनिज पदार्थ ताते जंगलों से ही मिलेंगे। और फिर यही से शुरु हुई राजनैतिक सत्ता को नियंत्रण करने की ब्रिटिश नीति।

दशक खप जाएंगे रोजगार के संसाधन पैदा करने में 
सूबे की सरकार जहां एक ओर यह कह रही है कि निजी कंपनियों को जंगल सौपने से रोजगार के संसाधनों में बढ़ोतरी होगी, तो वहीं दूसरी ओर यह भी माना जा रहा है कि कई दशक लग जाएंगे रोजगार तैयार करने में। निजीकरण से देश के हालात वैसे ही बहुत कमजोर हो गए हैं। ऐसे में जंगलों का भी निजीकरण से मध्यप्रदेश सरकार की निष्क्रीयता साफ व स्पष्ट दिखाई पड़ रही है।
10 अक्टूबर 2019 के अनुसार मध्यप्रदेश की जनसंख्या लगभग 7.03 करोड़ से ऊपर है। जिसमें से 73.33 फीसदी लोग ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। प्रदेश की कुल जनसंख्या में से 19 फीसदी हिस्सा आदिवासी समुदायों का है जो पारम्परिक रूप से जंगलों के साथ जीवन सम्बन्ध रखते हैं। इतना ही नहीं ग्रामीण जनसंख्या का 18 फीसदी हिस्सा भी अपनी आजीविका और जीवन के लिए जंगल के संसाधनों पर निर्भर है। ऐसे में शिवराज सरकार म.प्र. के 40 फीसदी जंगल निजी कंपनियों को देकर लोगों से रोजगार छीनने जा रही है। जिससे लगभग 2 करोड़ प्रदेशवासियों से भी ऊपर के लोगों की आजीविका के संसाधनों पर काला साया मडराने लगा है। अंतर्राष्ट्रीय आकड़ों के मुताबिक वैसे भी भारत के जंगल दिनों-दिन घटते क्रम में हैं, फिर क्या शिवराज सरकार म.प्र. के 40 फीसदी जंगल निजी कंपनियों को देकर जंगलों की सुरक्षा व अस्तित्व से खिलवाड करने जा रही है? अगर निजी कंपनियां मध्यप्रदेश के 40 फीसदी जंगल ध्वस्त कर कंपनी, प्लांट, उद्योग आादि स्थापित करती हैं, तो इसका सबसे गहरा प्रभाव मानव जीवन पर पडेगा।

इन्हें होगा नुकसान
मध्यप्रदेश में कुल पशुधन 3.49 करोड़ की संख्या में है जिसमें गाय, भैंस, बकरी, भेड़ और बैल सबसे ज्यादा हैं। जब हम गांवों का आनुपातिक विश्लेषण करते हैं। तो पता चलता है कि प्रदेश के कुल 52739 गांवों में से 22,600 गांव या तो जंगलों में बसे हुये हैं या फिर जंगलों की सीमा से सटे हुये। मध्यप्रदेश सरकार का वन विभाग सैद्धांतिक रूप से यह विश्वास करता है कि मुख्यधारा के विकास की प्रक्रिया से दूर रहने के कारण ये समुदाय (यानी जनसंख्या का एक तिहाई हिस्सा) अपनी आजीविका के लिये जंगलों पर निर्भर है।

प्रदेश में जंगल की संपदा  
यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल है कि हम वनों को सरकार की सम्पत्ति मानते हैं या फिर समुदाय की ? समाज पारम्परिक रूप से जंगलों का संरक्षण और उपभोग एक साथ करता रहा है और ब्रिटिश हुकूमत के दौर में सन् 1862 यानी देश के पहले स्वाधीनता संग्राम के ठीक पांच वर्ष बाद वन विभाग की स्थापना की। वे वन विभाग के जरिये उपनिवेशवाद को सशक्त करने के लिये जंगलों पर अपना मालिकाना हक चाहते थे। मध्यप्रदेश में 10 जुलाई 1958 को राजपत्र में एक पृष्ठ की अधिसूचना प्रकाशित करके 94 लाख हेक्टेयर सामुदायिक भूमि (जंगल) को वन विभाग की सम्पत्ति के रूप में परिभाषित कर दिया गया। ये नही की इस 94 लाख हेक्टेयर भूमि में से कितने हिस्से पर आदिवासी या अन्य ग्रामीण रह रहे हैं, खेती कर रहे हैं या पशु चरा रहे हैं यह विश्लेषण नहीं किया गया चूंकि आदिवासियों के पास निजी मालिकाना हक के कोई दस्तावेजी प्रमाण कभी रहे ही नहीं हैं, इसलिये उनके हक को अवैध और गैर-कानूनी माना जाने लगा। पहले (स्वतंत्रता से पूर्व) की व्यवस्था में हर गांव का एक दस्तावेज होता था, उसमें यह स्पष्ट उल्लेख रहता था कि गांव में कितनी भूमि है, उसका उपयोग कौन-कौन किस तरह से कर रहा है। वही गांव के मालिकाना हक का वैधानिक दस्तावेज था, इसे ‘‘बाजिबुल-अर्ज’’ कहा जाता था। आज भी इस तरह दस्तावेजी कागजात जिला अभिलेखागार में देखे जा सकता हैं। जंगल के इसी हस्तांतरण के कारण आदिवासियों के वैधानिक शोषण की शुरूआत हुई।

वर्ष           मध्यप्रदेश में जंगल का घनत्व
1997-         74760 वर्ग किमी
1999-         75130 वर्ग किमी
2001-         77265 वर्ग किमी
2003-          76429 वर्गकिमी

क्या कह्ता है केन्द्रीय वन मंत्रालय 2019-20 का सर्वे
 
केन्द्रीय वन मंत्रालय के 2019-20 के सर्वेनुसार, रिपोर्ट में म.प्र. के कई जिलों में पेड़ो की संख्या घटने का भी उल्लेख हैै। इसमें रीवा संभाग व सिंगरौली जिला भी शामिल है। सिंगरौली जिले का भौगोलिक एरिया 5675 वर्ग किलोमीटर है। यहां पर 38.42 प्रतिशत हिस्से में सिर्फ जंगल ही जंगल है, जिनका एरिया 2180.13 वर्ग किलोमीटर में है। मीडिया में प्रकाशित हो चुकी कुछ खोजी खबरो के मुताबिक वनों का घनत्व कम हुआ है। जहां 8.87 वर्ग किलोमीटर एरिया से पेड़ कम हुए हैं। इसी तरह उमरिया में 9.43 वर्ग किलोमीटर एरिया से ‘‘फारेस्ट कवर’’ कम हुआ है, विदिशा में 25.54, टीकमगढ़ में 16.36, श्योपुर में 26, सिवनी में 33.41, सिहोर में 43.10, सागर में 19.46, रायसेन में 0.74, मुरैना में 1.83, मंदसौर में 2.41, खरगोन में 2.94, झाबुआ में 7.33, जबलपुर में 25.07, होशंगाबाद में 11.35, हरदा में 51.74, गुना में 22.26, धार में 34.15, बुरहानपुर में 14.44, भोपाल में 25.33, अशोकनगर में 10.96, वर्ग किलोमीटर के दायरे से जंगलों का घनत्व निरंतर कम हुआ है।

वनों से अब तक प्राप्त राजस्व
वर्ष         प्राप्त राजस्व रूपये (करोड़)
2001-02        306.45
2002-03        497.30
2003-04        496.75
2004-05        559.11
2005-06        422.00

अब सबसे बडा सवाल यह है कि शिवराज सरकार मध्यप्रदेश के 40 फीसदी जंगल निजी कंपनियों को देकर कौन से बडे रोजगार देने की योजना तैयार कर रही है। जाहिर है जब शिवराज सरकार ने प्रदेश के 40 फीसदी जंगलो को नौसीखिए निजी हाथों में देने का फैसला लिया होगा, तो इस फैसले के पूर्व से ही नफा-नुकसान, गणित-विज्ञान का ब्लू प्रिन्ट तैयार किया जा चुका होगा? 
वहीं देश के जिन राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशो से जंगल खत्म हुए व अंधाधुंध कटाई हुई उन राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशो के वायुमंडल में दुष्प्रभाव भी बढ़ें हैं। और उन राज्यो और केन्द्र शासित प्रदेशो में वर्षा भी कम हो गई है तथा मरूस्थल पर कम वर्षा के यही कारण हैं। अब ऐसे में म.प्र. सरकार जंगलों को निजी कंपनियों को सौंप म.प्र. के वायुमंडल, वर्षा के औसत दर से खिलाड करने की पूरी तैयारी बना ली है। 

पर्यावरण सुरक्षा पर सरकार के आगे जनता ने टेके थे घुटने
ऐसा ही एक मिलता-जुलता मामला मुंबई के आखिरी ‘हरे फेफड़े’ (आरे जंगलो) को बचाने की लड़ाई में जनता ने शासन-प्रशासन के आगे घुटने टेक दिए थे। जहां 2,185 पेड़ों को काटने की योजना बनाई, और सर्वोच्च न्यायालय में स्वीकार किया कि 1,500 से अधिक पहले ही काट दिए गए थे। लेकिन याचिकाकर्ताओं का दावा था कि अधिकारियों ने लगभग 2,500 पेड़ों को काटा है। 1,300 हेक्टेयर (3,212 एकड़) में फैला, आरे झीलों के साथ घने जंगलों वाला क्षेत्र है और इसमें से मीठी नदी भी बहती है। इस मामले को लेकर एक हद तक रोकने के लिए सड़को पर उतर आए स्थानीय निवासी, छात्र और पर्यावरण कार्यकर्ता पुलिस से भिड़ गए थे। अब देखना यह है कि शिवराज सरकार जब मध्यप्रदेश के जंगलों का निजीकरण कर दिया है, तब क्या मध्यप्रदेश के निवासी पर्यावरण को बचाने हेतु सरकार से सीधा संवाद करेंगे या फिर निजीकरण से संतुष्ट हो पर्यावरण को दोहने में सहभागी होंगे। मालूम हो कि यहां तक कि आरे कॉलोनी में प्रवेश करने के लिए बैरिकेड्स के माध्यम से तोड़ दिया। 50 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया और पुलिस ने सार्वजनिक समारोहों पर प्रतिबंध लगाया। विरोध प्रदर्शनों ने सप्ताहांत में राष्ट्रीय सुर्खियाँ बटोर लीं और उच्चतम न्यायालय ने बिना किसी पार्टी की औपचारिक शिकायत के (मुकदमा किसी भी पक्ष से) ले लिया…।

 

 

                                                                                                                                                                                                     जलवायु परिवर्तन के खतरे से अकेले नहीं लड़ा जा सकता…. 
                                                                                                                                                                                                                                                      प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
                                                                                                                                                                                                                                                             (जी-2 सम्मेलन)

 

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