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हम उस स्वास्थ्य व्यवस्था से वेंटिलेटर और आईसीयू बेड की उम्मीद कर रहे हैं जो खुद "वेंटिलेटर" पर है

 हम उस स्वास्थ्य व्यवस्था से वेंटिलेटर और आईसीयू बेड की उम्मीद कर रहे हैं जो खुद वेंटिलेटर पर है।
बढ़ते कोरोना के संकट ने भारत की पब्लिक हेल्थ सर्विस की पोल खोल दी है। 
भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था किस हालत में है, और क्यों ?
नई दिल्ली। भारत में कोरोना के मामले जैसे-जैसे बढ़ रहे हैं, वैसे-वैसे इसके खिलाफ हमारी लड़ाई कमजोर होती जा रही है। लेकिन क्यों?
क्योंकि भारत में पब्लिक हेल्थ सिस्टम या सरकारी स्वास्थ्य सुविधा दशकों से नजरअंदाज की जा रही है। इस रिपोर्ट के जरिये हम आपको भारतीय सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था की सच्चाई बतायेंगे। लेकिन इससे पहले आप यह जान लीजिये कि भारत में सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था को चाक-चौबंद करने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों की होती है। यहां हम केंद्र सरकार के कामों की बात करेंगे । 

 सबसे पहले हम भारत के सरकारी स्वास्थ्य सुविधा की ताकत या क्षमता को समझेंगे, हम यह देखेंगे कि हमारी जरूरत क्या है और हमारे पास है क्या? इससे हमे अंदाजा लगेगा कि अभी इसकी क्या हालत है? 

हम इसे भारत सरकार की खास योजना राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (NRHM) से समझेंगे –

केंद्र सरकार की मदद से राज्यों की ग्रामीण सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिये इस पॉलिसी की शुरुआत की गई थी, इसमें 35-37 % ख़र्चे की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की बाकी राज्यों की होती है। नेशनल हेल्थ पॉलिसी ड्राफ़्ट 2015 के पॉइंट 2.6 के मुताबिक 2015 तक इस योजना के जरिए 900,000 कम्युनिटी हेल्थ वालंटियर यानी आशा वर्कर्स की नियुक्ति, 18,000 एम्बुलेंस की शुरुआत, 178,000 हेल्थ वर्कर्स की नियुक्ति और एक करोड़ गर्भवती महिलाओं को कैश ट्रांसफर करने का काम पूरा कर लिया गया था। रिपोर्ट के मुताबिक हमने अपनी ग्रामीण स्वास्थ्य सुविधा को पहले से 80% ज्यादा मजबूत कर लिया था, लेकिन इसी रिपोर्ट में चौकाने वाली बात यह है कि इतना करने के बाद भी हम 20% से कम लोगों की स्वास्थ्य सुविधा को ही कवर कर पा रहे थे। इसी ड्राफ़्ट के पॉइन्ट 2.8 के अनुसार एनआरएचएम के पूरे ढांचे को दुरुस्त करने के लिए केंद्र सरकार से जितने बजट या पैसे की जरूरत थी, एक्सपैंडेचर यानी केंद्र सरकार ने खर्च उसका महज 40% किया था। 
 
सोचने वाली बात क्या है?
उस समय की सरकार ने जो 2014 तक सत्ता में थी, अगर उसने बजट की 40% के बजाय 80% या 100% खर्च किया होता, तो आज यही ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था 20% की बजाय कम-से-कम 40% या ज्यादा-से-ज्यादा 50% लोगों को कवर कर रही होती। इस तरह की कई योजनायें और भी हैं और सभी की  हालत कुछ इसी तरह की है। 

किस रोग की कितनी हिस्सेदारी (Burden of Disease) – 

नेशनल हेल्थ पॉलिसी ड्राफ़्ट 2015 के अनुसार हमारे देश में कम्यूनिकेबल डिजीज यानी ऐसे रोग जो एक से दूसरे को हो सकते हैं की दर,कुल रोग में 24.4% है। मेंटल और नॉन-मेंटल रोगों की दर 13.8% है। नॉन-कम्यूनीकेबल डिजीज की दर 39.1% है। ड्राफ़्ट के पॉइंट 2.7 में सरकार ने स्पष्ट तौर माना है कि राष्ट्रीय स्तर पर नॉन-कम्यूनीकेबल रोगों के रोक-थाम के लिए हमारी व्यवस्था बहुत सीमित है। 

रोगों के रोक-थाम में हमारा प्रदर्शन (Performance in Disease Control) – 

रोगों के रोक-थाम का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एचआईवी (HIV) जैसे रोगों को रोक पाने में हदतक सफल होने के बाद भी हम उसे पूरी तरह से खत्म नहीं कर पा रहे हैं।  एचआईवी जिसका औसत जहां 2001 में 0.41% था वहीं 2011 में घटकर 0.27% हो गया था, लेकिन इसके बावजूद 2011 में ही 21 लाख एचआईवी के पॉजिटिव केस हमारे सामने थे, इसके अलावा उसी दौरान 1.48 लाख नये मामले सामने आये। इससे यह साफ होता है कि हम रोगों को हद तक ख़त्म कर देते हैं लेकिन स्वास्थ्य सुविधा में तमाम कमियों के चलते हम उसे पूरी तरह मिटा नहीं पा रहे हैं। 

ट्यूबरक्लोसिस यानी टीबी या यक्ष्मा की हालत यह है कि भारत में 1 लाख लोगों में 219 लोगों को टीबी है, और 1 लाख लोगों में 19 लोगों की मौत टीबी के चलते होती है। दुनिया भर में टीबी के मरीजों का एक-चौथाई हिस्सा भारत में रहता है। दुनिया भर में टीबी के 24% मरीज़ भारत से होते हैं। 

क्वालिटी केयर (Quality Care) –

हम इसका भी हिंदी अर्थ लिख सकते थे लेकिन इसके हिंदी अर्थ में क्वालिटी केयर की परिभाषा नहीं छुपी है। पहले आप क्वालिटी केयर परिभाषा समझिये, यह विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) का एक मानक है जिसका मतलब है कि लोगों को वह स्वास्थ्य सुविधा उसे तब मुहैया करायी जाए, जब उन्हें उसकी जरूरत हो। उसमें न तो देर हो और न ही अनियमितताएं। इसको समझने के लिये हम गर्भवती महिलाओं को मुहैया करायी जाने वाली स्वास्थ्य सुविधाओं को सैम्पल के तौर पर रखते हैं। 
देखेंगे क्या?
हम यह देखेंगे कि क्या गर्भवती महिलाओं को वो तमाम जरूरी सुविधाएं जैसे दवाइयां और न्यूट्रिशन समय पर उपलब्ध करायी जा रही हैं? 
भारत सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य मंत्रालय और विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) का यह मानक है कि सभी गर्भवती महिलाओं के लिए डिलीवरी से पहले कम-से-कम तीन जांच (Antenatal Check Up) जरूरी है। लेकिन भारत में 2015 तक 90% गर्भवती महिलाओं की केवल एक प्रसवपूर्व जांच हो पाती थी।13% गर्भवती महिलाओं को टिटनेस का टीका (TT immunization) नहीं लग पाता था।79% गर्भवती महिलाएं जरूरी एएफए टैबलेट से वंचित रह जाती थीं और 12 से 33 महीने के नवजात बच्चों में से 39% बच्चों का पूरा टीकाकरण नहीं हो पाता था। जर्नल ऑफ कम्यूनिटी हेल्थ के मुताबिक, अभी भी गर्भवती महिलाओं और नवजात बच्चों की देख-रेख में पिछले 15 सालों से कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं आया है।  

अब सवाल उठता है कि पब्लिक हेल्थ सिस्टम की इतनी जर्जर हालत क्यों है? तो उसके पीछे सबसे बड़ी वजह यह है कि भारत दुनिया के उन देशों में से एक है जो अपनी स्वास्थ्य व्यवस्था पर सबसे कम खर्च करता है। इसे ठीक से समझने के लिए आईये देखते हैं कि केंद्र सरकार स्वास्थ्य व्यवस्था पर कितना खर्च कर रही है। 

नेशनल हेल्थ अकाउंट एस्टीमेट 2015-16 के मुताबिक, भारत के सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था पर गवर्नमेंट हेल्थ एक्सपेंडिचर (GHE) 162,863 करोड़ है। अब आप सोच रहे होंगे ये क्या है, सरकार द्वारा सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था पर किये जाने वाले कुल खर्च को गवर्नमेंट हेल्थ एक्सपेंडिचर (GHE)  कहते हैं। जो कि जरूरी खर्च का महज 30% है।
यानी कि 100 रूपये का खर्चा है और हम केवल 30 रुपये खर्च कर रहे हैं। यही नहीं, सरकारी स्वास्थ्य सुविधा पर पिछले 15 साल से हम इतना ही खर्च करते आये हैं। 
2004 में मनमोहन सरकार ने यह वादा किया था कि अगले पांच साल तक उनकी सरकार सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का 2-3% स्वास्थ्य पर खर्च करेगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं। नेशनल हेल्थ पॉलिसी 2017 के माध्यम से कुछ इसी तरह का वादा मोदी सरकार ने भी किया था। सरकार ने कहा था कि 2025 तक वह स्वास्थ्य पर हो रहे खर्चे को बढाकर जीडीपी 2.5% कर देगी लेकिन अभी तक ऐसा कुछ होता दिख नहीं रहा। 
पिछले 15 सालों से भारत पब्लिक हेल्थ पर अपने जीडीपी का औसतन 1% से भी कम खर्च कर रहा है जो कि प्रति व्यक्ति खर्च यानी सरकार द्वारा एक व्यक्ती के स्वास्थ्य पर किया जाने वाले खर्च के हिसाब से श्रीलंका और इंडोनेशिया से भी कम है, इसी वज़ह से भारत दुनिया के उन देशों में से एक है, जो पब्लिक हेल्थ पर सबसे कम खर्च करता है। सरकार खुद यह बात नेशनल हेल्थ पॉलिसी ड्राफ़्ट 2015 में मान रही है। 
श्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के हेल्थ फाइनेंसिंग प्रोफाइल 2017 के अनुसार भारत के लोग अपने कुल खर्च का दो-तिहाई हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च करने को मजबूर हैं, जबकि दुनिया के लोगों का अवसत 18.2% है। 63% भारतीय हर साल इसके चलते गरीबी का सामना करते हैं। 

गरीबी से इसका क्या लेना देना क्यों गरीब हो जाते हैं ? 
विश्व बैंक के अनुसार भारत में 1,000 व्यक्ति के लिये केवल 0.7 बेड है। 1,000 लोगों के लिये केवल 0.857 फिजीशियन यानी डॉक्टर है। ये हालत पूरी तरह से विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों की धज्जियाँ उड़ाने वाली है। भारत में हर चार में से एक व्यक्ती पर नॉन-कम्यूनीकेबल डिजीज या गैर संचारी रोग से मरने का खतरा हमेशा बना रहता है। 

भारत में सरकारी स्वास्थ्य सुविधा या पब्लिक हेल्थ सर्विस की हालत जर्जर है।  न उसके पास रोगों को ठीक करने की ताकत है और न ही ज्यादा लोगों का इलाज करने की वयवस्था है। आप ने तो सुना ही होगा कि किसी ने एम्स में नंबर लगाया है, उसे 6 महिने बाद की डेट मिली है। इसी के चलते लोग मजबूरी में निजी या प्राइवेट अस्पतालों में जाने को मजबूर हैं, जो बहुत ज्यादा महंगे हैं। इसके चलते हर साल भारत के 63% लोग गरीबी का सामना करते हैं। 

अब आप सोचिये कि ऐसी सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था, जो न तो आम रोगों से लड़ सकती और न ही ज्यादा लोगों का इलाज कर सकती है, वह कोरोना से कैसे लड़ेगी, वो भी तब जब लाखों लोग एक साथ इसके चपेट में आ चुके हैं और इसकी कोई दवाई नहीं है। 

हमने कोरोना से अबतक कैसे लड़ाई लड़ी और भविष्य मेंऐसी किसी महामारी से निपटने के लि‍ए पब्लिक हेल्थ सर्विस के क्षेत्र में हमें क्या करना होगा ? 

भारत में कोरोना ने जब तेजी से पैर फैलना शुरू किया सरकार ने तुरंत 15,000 करोड़ का आपात फ़ंड जारी किया ताकि टेस्टिंग को बढ़ाया जा सके, आईसीयू बेड बढ़ाये जा सकें, आईसोलेशन बेड सहित वेंटिलेटर और तमाम जरूरी चीजों को दुरुस्त किया जा सके। लेकिन भारत जैसे बड़े आबादी वाले देश में, जिसकी स्वास्थ्य सुविधा पहले से ही गर्त में है। यह सारे प्रयास न चाहते हुए भी महज औपचारिकता ही लगते हैं।

इस तरह की इमर्जेंसी से दूसरी मेडिकल सुविधायें भी बुरी तरह डिस्टर्ब हुई हैं, जिसके चलते तमाम लोग परेशान हुए। शिशु स्वास्थ्य सेवा या जच्चा-बच्चा के लिये जरूरी स्वास्थ्य सेवाओं के प्रभावित होने की कई मीडिया रिपोर्ट सामने आ चुकी हैं जिसके आगे खतरनाक नतीजे हो सकते हैं।

क्या किया जाना चाहिये –
बड़ा स्वास्थ्य पैकेज और और बड़ा इन्वेस्टमेंट यूनिवर्सल हेल्थ सर्विस यानी यूएचसी को मुहैया करा पाने के लिए जरूरी है। कोरोना ने यह साबित कर दिया है कि यूएचसी के लक्ष्यों को हासिल करना जरूरी है। अब आप सोच रहे होंगे कि ये क्या होता है तो आइये समझते हैं…. 
क्या होता है यूनिवर्सल हेल्थ सर्विस (UHC) –
 
यूएचसी विश्व स्वास्थ्य संगठन का बनाया हुआ एक लक्ष्य है, जिसे दुनिया के कम-से-कम हर उन देशों को हासिल करना है जो विकासशील हैं या विकसित हैं। यूएन के सभी सदस्य, जिसमें भारत भी शामिल है इसे लेकर अपनी सहमति जाहिर कर चुके हैं।
यूएचसी का मतलब सभी लोगों और पूरे समुदाय के लिये आसान स्वास्थ्य सुविधा हो यानी ऐसी पब्लिक हेल्थ सर्विस जो यूनिवर्सिली सबको कवर कर सके। जिसके तहत तमाम तरह की स्वास्थ्य सुविधाएं, स्वास्थ्य से जुड़ी साक्षरता, अच्छा खान -पान और वह सबकुछ आता है, जो हमारे स्वास्थ्य से जुड़ी हुई है या स्वास्थ्य के लिए जरूरी है। लेकिन पर्याप्त इन्फ्रास्ट्रक्चर और स्किल्ड या कुशल मैनपावर इसका बेसिक है। बिना किसी आर्थिक समस्या के सभी को अच्छी स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध करायी जा सके यही इसका मकसद है।
अमेरिका समेत दुनिया के कई देश यूएचसी को अपने विकास (sustainable development) के एजेंडे में ला चुके हैं। अमेरिका ने तो 12 दिसंबर 2019 को इंटरनेशनल यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज डे पर इसकी घोषणा भी कर दी कि वह इसे 2030 तक पूरा कर लेगा।
क्या आपको नहीं लगता कि अब भारत को भी इस दिशा में सोचना चाहिये?

यह रिपोर्ट नेशनल हेल्थ पॉलिसी ड्राफ़्ट 2015, नेशनल हेल्थ अकाउंट 2015-16, नेशनल हेल्थ पॉलिसी 2017, विश्व स्वास्थ्य संघटन के हेल्थ फाइनेंसिंग प्रोफाइल 2017 और विश्व बैंक के फाइंडिंग के आधार पर तैयार की गई है। आप कमेंट बॉक्स में रिपोर्ट के संदर्भ में अपनी टिपण्णी, सुझाव या सवाल छोड़ सकते हैं। ऐसे ही तमाम रिसर्च बेस्ड ख़बरों के लिए हमारे साथ बने रहें।

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