जिस दौर की शुरुआत ही फ़र्ज़ी हो , उस दौर को ख़त्म क्यों नहीं होना चाहिए ?
Bhopal Desk : Gautam Kumar : यह वही खबर है दम पर देश के बड़े पत्रकार कहे जाने वाले सुधीर चौधरी (Sudhir Chaudhary) ने अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआत की थी। यह खबर इसलिए बताना जरूरी है क्यूंकि यह वही पत्रकार है जो बड़े – बड़े मीडिया हाउस के बैनर तले ऐसी ओछी हरकतें करते हैं।
माननीय बड़े पत्रकार ने पत्रकारिता को बदनाम करने की शुरुआत एक फ़र्ज़ी स्टिंग (Sting) से की थी। दिल्ली की एक निर्दोष अध्यापिका (Teacher) ऊषा खुराना (Usha Khurana) को सेक्स रैकेट का सरगना बताकर , लगभग उनकी लिंचिंग (Lynching) करवा दी थी। बाद में उन्हें ज़मानत दे दी गयी पर जिसका दौर ही एक झूठ से शुरू हुआ हो क्या देश को ऐसे पत्रकारों पर भरोसा करना चाहिए अगर हाँ तो कल आप भी ऊषा खुराना के जगह हो सकते हैं।
उसी स्टिंग से सम्बंधित एक खबर कुछ इस प्रकार है
(29 मई 2008) : मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट नवीन अरोरा ने अदालत के सामने पेश होने के बाद चैनल के मालिक सुधीर चौधरी को जमानत दे दी और 10,000 रुपये के निजी मुचलके से लैस कर दिया।
ज्ञात हो कि 30 अगस्त को प्रसारित स्टिंग ऑपरेशन जिसमे उमा खुराना, जो मध्य दिल्ली के सर्वोदय कन्या विद्यालय में गणित की शिक्षक थीं। और स्टिंग के अनुसार छात्रों को शामिल करते हुए वेश्यावृत्ति का रैकेट चलाया था।
चैनल द्वारा स्टिंग के वीडियो फुटेज प्रसारित करने के तुरंत बाद, 41 वर्षीय खुराना को अनैतिक तस्करी के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, एक भीड़ द्वारा बुरी तरह से दुर्व्यवहार और हमला किया गया था, और बाद में सरकारी सेवा से बर्खास्त भी कर दिया गया था।
एक हफ्ते बाद, स्टिंग को गलत एवं झूठा पाया गया। क्यूंकि महिला को एक छात्र के रूप में दिखाया गया था और एक वेश्यावृत्ति रैकेट का शिकार एक महत्वाकांक्षी पत्रकार निकला। ऑपरेशन को अंजाम देने वाले चैनल के रिपोर्टर प्रकाश सिंह को भी पिछले साल 8 सितंबर 2007 को गिरफ्तार किया गया था।
अदालत ने बाद में खुराना को सभी आरोपों से मुक्त कर दिया था।
और खुराना ने लाइव इंडिया के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर किया, जिसके लिए उसे “मानसिक पीड़ा, अपमान और उत्पीड़न” के लिए जिम्मेदार बताया गया।
क्या ये सचमे पत्रकार हैं ?
पिछले कुछ वर्षों में मीडिया को एक व्यक्ति विशेष के समर्थक के रूप में पेश किया जा रहा है। ये वही पत्रकार है जिनपे बार-बार किसी व्यक्ति विशेष के तरफ आकर्षित होने का दावा होता रहा है। वर्तमान में यह मुद्दा इसलिए उछला क्यूंकि दिल्ली के शाहीन बाग़ में दो बड़े पत्रकारों का घोर विरोध हुआ। एक के साथ तो लोगों ने हाथापाई भी की, क्या पत्रकारिता इतनी ओछी हो चली है कि हम पुलिसबल के साथ आंदोलन ख़त्म करने चल पड़ें ? या उन प्रदर्शनकारियों से ये लोग कोई निजी दुश्मनी निकाल रहे हैं ?